شمارهٔ ۱ : ای پاکی تو منزّه از هر پاکی |
72 |
|
شمارهٔ ۲ : در وصفِ تو، عقل، طبعِ دیوانه گرفت |
79 |
|
شمارهٔ ۳ : ای هشت بهشت، یک نثارِ درِ تو |
70 |
|
شمارهٔ ۴ : وصفت نه به اندازهٔ عقلِ کَهُن است |
76 |
|
شمارهٔ ۵ : جان، محو شد و به هیچ رویت نشناخت |
75 |
|
شمارهٔ ۶ : دل زنده شود کز تو حیاتی طلبد |
74 |
|
شمارهٔ ۷ : عقلی که جهان کمینه سرمایهٔ اوست |
81 |
|
شمارهٔ ۹ : بر وصف تو دستِ عقل دانانرسد |
82 |
|
شمارهٔ ۱۵ : هم گوهر بحر لطف بیپایانی |
79 |
|
شمارهٔ ۸ : وصف تو که سرگشتهٔ او هر فلکی است |
90 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ای از تو فلک بی خور و بی خواب شده |
126 |
|
شمارهٔ ۱۱ : خورشید، که او زیر و زبر میگردد |
75 |
|
شمارهٔ ۱۲ : عالم که فنای محض، سرمایهٔ اوست |
82 |
|
شمارهٔ ۱۳ : هر دل که ز لطف تو نشان یابد باز |
78 |
|
شمارهٔ ۱۴ : هر نقطه که در دایرهٔ قسمت تست |
85 |
|
شمارهٔ ۱۶ : نه عقل به کُنْهِ لایزال تو رسد |
113 |
|
شمارهٔ ۱۷ : نه عقل، بدان حضرت جاوید رسد |
63 |
|
شمارهٔ ۱۹ : نه لایق کوی تست سیری که بود |
80 |
|
شمارهٔ ۲۴ : در وصف تو عقل و دانش مانرسد |
91 |
|
شمارهٔ ۱۸ : آنجا که تویی هیچ مبارز نرسد |
59 |
|
شمارهٔ ۲۰ : گر با تو به هم دگر نباشد چه بود |
82 |
|
شمارهٔ ۲۱ : ای غیر تو درهمه جهان موئی نه |
94 |
|
شمارهٔ ۲۲ : کس نیست که در دو کون ما دون تونیست |
79 |
|
شمارهٔ ۲۳ : ای پیش تو صد هزار جان یک سرِموی |
86 |
|
شمارهٔ ۲۸ : بی تو به وجود آرمیدن نتوان |
115 |
|
شمارهٔ ۲۵ : در معرفت تو دم زدن نقصان است |
93 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گردون زتو، بی سر و بنی بیش نبود |
67 |
|
شمارهٔ ۲۷ : یک لحظه که در گفت و شنید آئی تو |
94 |
|
شمارهٔ ۲۹ : از بس که در انتظار تو گردون گشت |
65 |
|
شمارهٔ ۳۰ : در مُلکتِ تو نیست دویی، ای همه تو |
66 |
|
شمارهٔ ۳۱ : یا رب! همه اسرار، تو میدانی تو |
128 |
|
شمارهٔ ۳۲ : ذاتت ز ازل تا به ابد قائم بس |
55 |
|
شمارهٔ ۳۳ : کو عقل که در ره تو پوید آخر |
64 |
|
شمارهٔ ۳۷ : کو چشم که ذرّهای جمالت بیند |
62 |
|
شمارهٔ ۳۸ : اسرار تو در حروف نتواند بود |
83 |
|
شمارهٔ ۳۴ : ای عین بقا! در چه بقائی که نهای |
73 |
|
شمارهٔ ۳۵ : در ذات تو سالها سخن راندهایم |
89 |
|
شمارهٔ ۳۶ : در راه تو معرفت خطا دانستیم |
79 |
|
شمارهٔ ۳۹ : ای آن که ز کفر، دین، تو بیرون آری |
74 |
|
شمارهٔ ۴۱ : ای رحمت و جودِ بینهایت از تو |
80 |
|
شمارهٔ ۴۲ : ای شمّهٔ لطف تو بهشت افروزی |
77 |
|
شمارهٔ ۴۰ : عالم که پر از حکمتِ تو میبینم |
70 |
|
شمارهٔ ۴۷ : گر دست دهد غم تو یک دم، آن به |
68 |
|
شمارهٔ ۴۳ : هم بر کف ودود، مُلْک بتوانی راند |
70 |
|
شمارهٔ ۴۴ : ای آن که کمال خرده دانان دانی |
78 |
|
شمارهٔ ۴۵ : ای آن که به حکم، ملک میرانی تو |
76 |
|
شمارهٔ ۴۶ : جان حمد تو از میانِ جان میگوید |
80 |
|
شمارهٔ ۵۶ : گه تحفه به نالهٔ سحرگاه دهی |
51 |
|
شمارهٔ ۴۸ : هم در بر خود خواندگان داری تو |
71 |
|
شمارهٔ ۴۹ : ای گم شده دیوانه وعاقل، در تو |
83 |
|
شمارهٔ ۵۰ : هم عقل ز کُنْه تو نشان میجوید |
80 |
|
شمارهٔ ۵۱ : چون نیست کسی در دو جهان دمسازت |
85 |
|
شمارهٔ ۵۲ : چون حاضر غایبی فغان بر چه نهم |
72 |
|
شمارهٔ ۵۳ : ای خلق دو کون ذکر گویندهٔ تو |
86 |
|
شمارهٔ ۵۴ : ای آن که چنانکه مصلحت میدانی |
76 |
|
شمارهٔ ۵۵ : چون ذُلِّ من از من است و چون عزّ از تو |
94 |
|
شمارهٔ ۵۷ : در ملک دو کون پادشاهی میکن |
103 |
|
شمارهٔ ۶۰ : جانا دایم میان جان بودی تو |
58 |
|
شمارهٔ ۶۲ : سی سال به صد هزار تک بدویدیم |
82 |
|
شمارهٔ ۶۳ : کردم تک و پوی بی عدد بسیاری |
66 |
|
شمارهٔ ۵۸ : ای در دلِ من نشسته جانی یا نه |
66 |
|
شمارهٔ ۵۹ : ملکِ غم تو هر دو جهان بیش ارزد |
77 |
|
شمارهٔ ۶۱ : هر قطره به کُنْهِ دُرِّ دریا نرسد |
55 |
|
شمارهٔ ۶۵ : جانها چو ز شوق تو بسوزند همه |
77 |
|
شمارهٔ ۶۶ : جان از طلب روی تو آبی گردد |
80 |
|
شمارهٔ ۶۴ : ای خورده غم تو یک به یک چندینی |
81 |
|
شمارهٔ ۶۷ : دل خون کن اگر سَرِ بلای تو نداشت |
88 |
|
شمارهٔ ۶۸ : کاری که ورای کفر و دین میدانم |
72 |
|
شمارهٔ ۶۹ : هرجان که طریق پردهٔ راز نیافت |
67 |
|
شمارهٔ ۷۰ : از سرِّ تو هر که با نشان خواهد بود |
86 |
|
شمارهٔ ۷۱ : گم گشتن خود، از تونشان بس بودم |
86 |
|
شمارهٔ ۷۴ : ای عقل شده در صفت ذات تو پست |
73 |
|
شمارهٔ ۷۵ : چون عفو تو میتوان مسلم کردن |
62 |
|
شمارهٔ ۷۲ : بی یادِ تو دل چو سایه در خورشید است |
104 |
|
شمارهٔ ۷۳ : چون مونسِ من ز عالم اندوه تو بود |
66 |
|
شمارهٔ ۷۶ : گر فضلِ تو عقل را یقین مینشود |
71 |
|
شمارهٔ ۷۷ : یک ذره هدایتِ تو میباید و بس |
64 |
|
شمارهٔ ۷۸ : چون دردِ تو چاره ساز آمد جان را |
64 |
|
شمارهٔ ۷۹ : جانا که به جای تو تواند بودن |
77 |
|
شمارهٔ ۸۲ : نه در صفِ صادقان قراری دارم |
65 |
|
شمارهٔ ۸۰ : من بی تو دمی قرار نتوانم کرد |
74 |
|
شمارهٔ ۸۱ : چون بیخبرم که چیست تقدیر مرا |
70 |
|
شمارهٔ ۸۳ : یا رب ما را راندهٔ درگاه مکن |
83 |
|
شمارهٔ ۸۴ : روئی که به روز پنج ره میشوئیم |
64 |
|
شمارهٔ ۸۵ : زان روز که از عدم پدید آمدهایم |
70 |
|
شمارهٔ ۸۶ : یا رب چو به صد زاری زار آمدهایم |
76 |
|
شمارهٔ ۸۷ : ای دایرهٔ حکم تو سرگردانی |
68 |
|
شمارهٔ ۸۸ : ای آن که همه گشایش بندِ منی |
65 |
|
شمارهٔ ۹۰ : ای جانِ من سوخته دل زندهٔ تو |
63 |
|
شمارهٔ ۹۳ : ای یادِ تو مرهم دل خستهٔ من |
61 |
|
شمارهٔ ۹۴ : یا رب غم تو چگونه تقدیر کنم |
64 |
|
شمارهٔ ۸۹ : سیر این دل خسته کی شود ازتو مرا |
72 |
|
شمارهٔ ۹۱ : یا رب تو مرا مدد کن از یارِی خویش |
75 |
|
شمارهٔ ۹۲ : از هیبت تو این دل غم خواره بسوخت |
81 |
|
شمارهٔ ۹۵ : هم حلهٔ فضل در برم میداری |
61 |
|
شمارهٔ ۹۶ : ای بندگی تو پادشاهی کردن |
89 |
|
شمارهٔ ۹۹ : ای در هر دم دو صد جهان پر چاره |
62 |
|
شمارهٔ ۱۰۲ : یا رب! برهان زنفس دشمن صفتم |
68 |
|
شمارهٔ ۹۷ : یا رب جان را بیم گنه کاران هست |
64 |
|
شمارهٔ ۹۸ : گر من به هزار اهرمن مانم باز |
65 |
|
شمارهٔ ۱۰۰ : جان دردو جهان کسی بجای تو نداشت |
84 |
|
شمارهٔ ۱۰۱ : هم درد توام مایهٔ درمان بودست |
104 |
|
شمارهٔ ۱۰۳ : تا چند تنم پردهٔ بیچارگیم |
69 |
|
شمارهٔ ۱۰۷ : میآیم و با دلی سیه میآیم |
90 |
|
شمارهٔ ۱۰۴ : چون جملهٔ راه، کاروان من و تست |
74 |
|
شمارهٔ ۱۰۵ : کو دل که بلای روزگارِ تو کشد |
60 |
|
شمارهٔ ۱۰۶ : یا رب به حجاب زین جهانم نبری |
56 |
|
شمارهٔ ۱۰۸ : یا رب چو مرا ز نفسِ خود سود نبود |
91 |
|
شمارهٔ ۱۰۹ : ای هفت زمین و آسمانها ز تو پُر |
66 |
|
شمارهٔ ۱۱۰ : گر من زگنه توبه کنم بسیاری |
70 |
|
شمارهٔ ۵ : هم رحمت عالمی ز ما ارسلناک |
95 |
|
شمارهٔ ۱۱۱ : نه در بتری نه در بهی میمیرم |
60 |
|
شمارهٔ ۱ : صاحب نظری که هیچ افکنده نبود |
75 |
|
شمارهٔ ۲ : صدری که ز هرچه بود برتر او بود |
84 |
|
شمارهٔ ۳ : صدری که ز هر دو کون، در بیشی بود |
57 |
|
شمارهٔ ۴ : زان پیش که نُه خیمهٔ افلاک زدند |
76 |
|
شمارهٔ ۶ : آن حسن که در پردهٔ غیبست نهان |
79 |
|
شمارهٔ ۹ : ای رحمت عالمین، رحمت از تست |
79 |
|
شمارهٔ ۱۰ : در امت تو اگر مطیعی نبود، |
76 |
|
شمارهٔ ۱۲ : تا هست ز انگشت تو مه را راهی |
77 |
|
شمارهٔ ۷ : فرماندهِ ملکِ انبیا کیست تویی |
85 |
|
شمارهٔ ۸ : بر درگه حق کراست این عز که تراست |
75 |
|
شمارهٔ ۱۱ : چون هست شفیع چون تو صاحب کرمی |
77 |
|
شمارهٔ ۱۳ : هم چار گهر، چاکر دربان تواند |
97 |
|
شمارهٔ ۲ : آن بحر که در یگانگی اوست یکی |
68 |
|
شمارهٔ ۱ : صدری که به صدق، صدر ثقلین او بود |
77 |
|
شمارهٔ ۲ : آن پیشروی، که شرع از او نام گرفت |
72 |
|
شمارهٔ ۳ : ای آن که حیا و حلم، قانون تو بود |
102 |
|
شمارهٔ ۴ : صدری که گلِ طارمِ معنی او رُفت |
83 |
|
شمارهٔ ۵ : ای ماه ز حسن خلق تو یافته بهر |
79 |
|
شمارهٔ ۶ : ای گوهر کانِ فضل و دریای علوم |
77 |
|
شمارهٔ ۱ : بحری که در آسمان زمین خواهد بود |
88 |
|
شمارهٔ ۳ : گردِ تو درآمده چنین دریایی |
83 |
|
شمارهٔ ۴ : یک روی به صد روی همی باید دید |
85 |
|
شمارهٔ ۵ : راهی که همه سلوک وی باید کرد |
104 |
|
شمارهٔ ۶ : آخر روزی دلت به درگه برسد |
79 |
|
شمارهٔ ۷ : هر چیز که هست در دو عالم کم و بیش |
67 |
|
شمارهٔ ۸ : عالم همه گفت و گوی خود میبیند |
110 |
|
شمارهٔ ۹ : پیوسته دلی گرفته از غیرت باد! |
91 |
|
شمارهٔ ۱۰ : خود را، سوی خود،رهگذری باید کرد |
65 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هر جان که به راه رهنمون مینگرد |
107 |
|
شمارهٔ ۱۲ : یک چیز که آن نه یک و چیز است آن چیز |
82 |
|
شمارهٔ ۱۳ : چیزی که دمی نه تو درآنی و نه من |
90 |
|
شمارهٔ ۱۴ : آن ماه که بر هر دو جهان میتابد |
73 |
|
شمارهٔ ۱۵ : چیزی که ورای دانش و تمییز است |
73 |
|
شمارهٔ ۱۶ : آن کی آید در اسم، شب خوش بادت! |
63 |
|
شمارهٔ ۱۷ : آن بحر که هر لحظه دگرگون آید |
77 |
|
شمارهٔ ۱۸ : غوّاص در اوّل قدم از فرق کند |
67 |
|
شمارهٔ ۱۹ : جایی که درو نه شیب ونه بالا بود |
78 |
|
شمارهٔ ۲۰ : آن بحر که دم به دم فزون میجوشد |
66 |
|
شمارهٔ ۲۱ : بحری که در او دو کون ناپیدا بود |
108 |
|
شمارهٔ ۲۲ : هر دل که درین دایرهٔ بی سر و پاست |
63 |
|
شمارهٔ ۲۳ : هر جان که به بحر رهنمون اندوزد |
87 |
|
شمارهٔ ۲۴ : تا نفس پرستی تو را غم بیش است |
74 |
|
شمارهٔ ۲۵ : هر دل که به بحرِ بینشانی افتاد |
77 |
|
شمارهٔ ۲۶ : آن کل که بدو جنبش اجزا دیدم |
86 |
|
شمارهٔ ۲۹ : صد قطره که یک آب نماید جمله |
82 |
|
شمارهٔ ۳۱ : آن بحر که موجش گهر انداز آید |
86 |
|
شمارهٔ ۲۷ : مرغی که بدید از می این دریا دُرد |
118 |
|
شمارهٔ ۲۸ : هر جان که بجان نیست گرفتار او را |
78 |
|
شمارهٔ ۳۰ : گه جان، دل خویش، غرق خون مانده دید |
71 |
|
شمارهٔ ۳۲ : چندان که تو این بحر گهر خواهی دید |
71 |
|
شمارهٔ ۳۳ : هر جان که به بحر رهنمون آید زود |
66 |
|
شمارهٔ ۳۴ : معنی چو ز کل به جزو بیرون آید |
104 |
|
شمارهٔ ۳۵ : آن نور که بیرون و درون میتابد |
65 |
|
شمارهٔ ۳۶ : این عین مکان همان مکان است که بود |
63 |
|
شمارهٔ ۳۷ : سریست برون زین همه اسرار که هست |
125 |
|
شمارهٔ ۳۸ : در دریایی که نه سر و نه پا داشت |
59 |
|
شمارهٔ ۳۹ : کس نیست که دریا همه او را افتاد |
98 |
|
شمارهٔ ۴۰ : هر چیز که آن ز نیستی در پیوست |
87 |
|
شمارهٔ ۴۲ : گاهی ز نو و گه ز کهن میگویند |
81 |
|
شمارهٔ ۴۶ : آن سر عجب نه توبدانی ونه من |
71 |
|
شمارهٔ ۴۱ : آن روز که آفتاب انجم میریخت |
69 |
|
شمارهٔ ۴۳ : در عالم جان نه مرد پیداست نه زن |
63 |
|
شمارهٔ ۴۴ : میپرسیدی که چیست این نقش مجاز |
206 |
|
شمارهٔ ۴۵ : آن سیل که از قوّت خود جوشان بود |
67 |
|
شمارهٔ ۴۷ : حل کردن آن نه تو توانی و نه من |
90 |
|
شمارهٔ ۴۹ : کاریست ز پیری و جوانی برتر |
76 |
|
شمارهٔ ۵۰ : در بند گرهگشای میباید بود |
66 |
|
شمارهٔ ۵۵ : آن راز که هست در پس صد سرپوش |
70 |
|
شمارهٔ ۴۸ : در بادیهای که پا ز سر باید کرد |
79 |
|
شمارهٔ ۵۱ : تخمی که درو مغز جهان پنهان بود |
75 |
|
شمارهٔ ۵۲ : جانی که درو تیره و روشن تو بوَد |
79 |
|
شمارهٔ ۵۳ : آن قوم که دروحدت کل آن دارند |
101 |
|
شمارهٔ ۵۴ : چون نور منوّرِ سُبُل یابی باز |
70 |
|
شمارهٔ ۵۹ : کی پشه تواند که ثریا بیند |
67 |
|
شمارهٔ ۵۶ : در حضرت حق، جمله ادب باید بود |
93 |
|
شمارهٔ ۵۷ : گر تشنهٔ بحری به گهر ایمان دار |
80 |
|
شمارهٔ ۵۸ : چون بحر شدی گهر میانِ جان دار |
67 |
|
شمارهٔ ۶۰ : گر باخبرست مرد و گر بیخبرست |
68 |
|
شمارهٔ ۶۱ : برخیز و به بحرِ عشقِ دلدار درای |
55 |
|
شمارهٔ ۶۲ : بحری که همه عمر به یکدم بینی |
63 |
|
شمارهٔ ۶۳ : گر تو دل خویش بیسیاهی بینی |
66 |
|
شمارهٔ ۷۰ : گر پرده ز روی کار بر میداری! |
101 |
|
شمارهٔ ۷۱ : تا چند کنی عزیمت دریا ساز |
76 |
|
شمارهٔ ۶۴ : گردیدهوری تو دیده بر کار انداز |
75 |
|
شمارهٔ ۶۵ : گرچه دل تو زین همه غم تنگ شود |
56 |
|
شمارهٔ ۶۶ : در بند خیال غیر یک ذرّه مباش |
73 |
|
شمارهٔ ۶۷ : تا کی خود را ز پای و سراندیشی |
65 |
|
شمارهٔ ۶۸ : هر جان که به نور قدس پیش اندیش است |
65 |
|
شمارهٔ ۶۹ : چون نیست ترا کار ز سودا بیرون |
67 |
|
شمارهٔ ۷۲ : هر جانی را که غرق انعام بود |
53 |
|
شمارهٔ ۷۳ : چون بدنامی به روزگاری افتد |
62 |
|
شمارهٔ ۷۵ : ور راه ز پس قطع کنی پایانت |
56 |
|
شمارهٔ ۷۶ : گر برخیزد ز پیش چشم تو منی |
63 |
|
شمارهٔ ۷۴ : چون نیست، گر از پیش روی، پیشانت |
71 |
|
شمارهٔ ۷۷ : آن را که به چشم کشف پیداست یقین |
70 |
|
شمارهٔ ۷۸ : بنگر بنگر، ای دل! اگر مرد رهی |
60 |
|
شمارهٔ ۷۹ : میپنداری که حق هویدا گردد |
65 |
|
شمارهٔ ۸۵ : هان ای دل بیخبر! کجاییم بیا |
75 |
|
شمارهٔ ۸۰ : هر دیده که اسرار جهان مطلق دید |
60 |
|
شمارهٔ ۸۱ : تا چند ازین نقش برآورده که هست |
73 |
|
شمارهٔ ۸۲ : آنجا که زمین را فلکی بینی تو |
76 |
|
شمارهٔ ۸۳ : هر جان که ز حکم مرکز دوران رفت |
61 |
|
شمارهٔ ۸۴ : آن سالک گرم روْ که در شیب و فراز |
116 |
|
شمارهٔ ۸۶ : دل را نه ز آدم و نه حواست نسب |
64 |
|
شمارهٔ ۸۷ : عشق آمد و نام کفر و ایمان نگذاشت |
82 |
|
شمارهٔ ۸۸ : در عشق نماند عقل و تمییز که بود |
73 |
|
شمارهٔ ۸۹ : آن دل که ز شوق نور اکبر میتافت |
96 |
|
شمارهٔ ۹۰ : از بس که بدیدم ز تو اسرار عجب |
77 |
|
شمارهٔ ۹۱ : یارب چه نهان چه آشکارا که تویی |
61 |
|
شمارهٔ ۹۲ : هر روز به حسن بیشتر خواهی بود |
76 |
|
شمارهٔ ۹۳ : جانا غمِ عشق تو بجان نتوان داد |
82 |
|
شمارهٔ ۹۴ : در راه تو گم گشت دویی اینت عجب! |
66 |
|
شمارهٔ ۹۵ : آن دیده که توحید قوی میبیند |
90 |
|
شمارهٔ ۹۶ : جانا ز میانِ من و تو دست کراست |
68 |
|
شمارهٔ ۹۷ : جانا نه یکیام نه دوام اینت عجب! |
60 |
|
شمارهٔ ۹۸ : دل خستهٔ سال و بستهٔ ماه نماند |
51 |
|
شمارهٔ ۹۹ : چون باز دلم غمِ ترا زقّه نهاد |
53 |
|
شمارهٔ ۱۰۰ : در عشق توام شادی و غم هیچ نبود |
45 |
|
شمارهٔ ۱ : ماییم که نیست غیر ما، اینْت کمال! |
116 |
|
شمارهٔ ۲ : چون ما به وجود خود هویدا باشیم |
63 |
|
شمارهٔ ۳ : ما را باشی بهْ که هوا را باشی |
67 |
|
شمارهٔ ۴ : عمرت که میان جان و تن گرداند |
77 |
|
شمارهٔ ۹ : آن چیز کزو عالم و آدم بینم |
59 |
|
شمارهٔ ۵ : با خویش همیشه عشقِ خود میبازیم |
60 |
|
شمارهٔ ۶ : از عالمِ بیچون به سکون باید شد |
62 |
|
شمارهٔ ۷ : ماییم که جز درگهِ ما درگه نیست |
77 |
|
شمارهٔ ۸ : ای آن که بلی گوی الست از مایی |
78 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ماییم که با ما نبود هیچ روا |
82 |
|
شمارهٔ ۱۲ : بس سرکش را کز سر مویی کُشتم |
66 |
|
شمارهٔ ۱ : صد دریا نوش کرده اندر عجبیم |
69 |
|
شمارهٔ ۲ : این سودایی که میدواند ما را |
73 |
|
شمارهٔ ۱۱ : با اینهمه اختلاف و تمییز که هست |
75 |
|
شمارهٔ ۱۳ : گر هست دلی، ز عشق، دیوانه به است |
63 |
|
شمارهٔ ۳ : زین بحر که در سینهٔ ما پیدا گشت |
75 |
|
شمارهٔ ۵ : تا چشم دلم به نور حق بینا گشت |
64 |
|
شمارهٔ ۶ : هر دم که دلم به فکر در کار آید |
66 |
|
شمارهٔ ۷ : در قعرِ دلِ خود سفرم میباید |
87 |
|
شمارهٔ ۸ : عمری به امید در طلب بنشستیم |
65 |
|
شمارهٔ ۱۰ : هر گه که دلم ز پرده پیدا آید |
70 |
|
شمارهٔ ۴ : دل گفت که ما چو قطرهای مسکینیم |
101 |
|
شمارهٔ ۹ : آن قطره که آب جمله از دریا خورد |
85 |
|
شمارهٔ ۱۱ : در عالمِ پُر علم سفر خواهم کرد |
82 |
|
شمارهٔ ۱۳ : بستیم میان و خون دل بگشادیم |
73 |
|
شمارهٔ ۱۵ : روزی که به دریای فنا در تازم |
65 |
|
شمارهٔ ۱۸ : در عشق دل من چو پریشانی گشت |
63 |
|
شمارهٔ ۱۲ : از بس که دلم در بُنِ این قلزم گشت |
86 |
|
شمارهٔ ۱۴ : زان روز که ما به زندگانی مُردیم |
57 |
|
شمارهٔ ۱۶ : صعب است به ذرّهای نگاهی کردن |
81 |
|
شمارهٔ ۱۷ : تا عقل من از عقیله آزادی یافت |
113 |
|
شمارهٔ ۱۹ : عمری به طلب در همه راهی گشتیم |
86 |
|
شمارهٔ ۲۲ : زان روز که آفتاب حضرت دیدیم |
69 |
|
شمارهٔ ۲۳ : از فوق، ورای آسمان بودم من |
70 |
|
شمارهٔ ۲۶ : با هستی و نیستیم بیگانگیست |
66 |
|
شمارهٔ ۲۷ : المنة للّه که نیم هر نفسی |
78 |
|
شمارهٔ ۲۰ : روزی دو سه خانه در عدم باید داشت |
60 |
|
شمارهٔ ۲۱ : ما روی ز هر دو کون برتافتهایم |
89 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون من نه منم چه جان و تن باشم و بس |
81 |
|
شمارهٔ ۲۵ : عمرم دایم ز روز و شب بیرون است |
65 |
|
شمارهٔ ۲۸ : تا شاگردم به قطع استادترم |
64 |
|
شمارهٔ ۳۴ : مستم ز می عشق و خراب افتاده |
81 |
|
شمارهٔ ۲۹ : چیزی است عجب در دل و جانم که مپرس |
103 |
|
شمارهٔ ۳۰ : ما جوهر پاک خویش بشناختهایم |
82 |
|
شمارهٔ ۳۱ : امروز چو من شفیته و مجنون کیست |
80 |
|
شمارهٔ ۳۲ : مرغ دل من ز بس که پرواز آورد |
60 |
|
شمارهٔ ۳۳ : ما را نه به شهر و نه به منزل کاری است |
71 |
|
شمارهٔ ۳۵ : زین راز که در سینهٔ ما میگردد |
106 |
|
شمارهٔ ۴۰ : چون سنگ وجود لعل شد کانم را |
50 |
|
شمارهٔ ۳۶ : چون مرغِ دلم زین قفسِ تنگ برفت |
64 |
|
شمارهٔ ۳۷ : هر روز ز چرخ بیش میخواهم گشت |
90 |
|
شمارهٔ ۳۸ : زین پیش دم از سر جنون میزدهام |
68 |
|
شمارهٔ ۳۹ : من بیخبر از جان و تنم، اینت عجب! |
70 |
|
شمارهٔ ۴۱ : چون وصل، غمم بر غمِ هجران بفزود |
51 |
|
شمارهٔ ۴۲ : تا چند ز اندیشه به جان خواهم گشت |
96 |
|
شمارهٔ ۴۳ : هرگاه که در پردهٔ راز آیم من |
76 |
|
شمارهٔ ۴۴ : چندان که ز عالم پس و پیشش دیدم |
65 |
|
شمارهٔ ۴۵ : خواهی که ببینی تو به پیدایی راز |
68 |
|
شمارهٔ ۴۶ : اینجا شکرم مگس فرو میگیرد |
80 |
|
شمارهٔ ۴۸ : دایم ز طلب کردن خود در عجبم |
70 |
|
شمارهٔ ۵۱ : چون بحر وجود روی بنمود مرا |
71 |
|
شمارهٔ ۴۷ : هر روز حجاب بیقراران بیش است |
59 |
|
شمارهٔ ۴۹ : زان روز که دل پردهٔ این راز شناخت |
78 |
|
شمارهٔ ۵۰ : در عشق مرا عقل شد و رای نماند |
77 |
|
شمارهٔ ۵۲ : هر جان که چو جان من گرفتار آید |
73 |
|
شمارهٔ ۵۳ : در قلزمِ توحید دو عالم کم گیر |
63 |
|
شمارهٔ ۵۴ : ماییم بدین پردهٔ بیرونی در |
85 |
|
شمارهٔ ۵۸ : کس را دیدی ز خود نفور افتاده |
75 |
|
شمارهٔ ۵۵ : در وادی عشق بیقراری است مرا |
74 |
|
شمارهٔ ۵۶ : آنجا که منم هیچکس آنجا نرسد |
90 |
|
شمارهٔ ۵۷ : صد مرحله زان سوی خرد خواهم شد |
61 |
|
شمارهٔ ۵۹ : عمری دل من غرقهٔ خون آمده بود |
57 |
|
شمارهٔ ۶۰ : زآنروز که دل نه شادی و نه غم دید |
81 |
|
شمارهٔ ۶۱ : نه سوختگی شناسم و نه خامی |
63 |
|
شمارهٔ ۶۲ : آرام ز جانِ حاضرم میبینم |
67 |
|
شمارهٔ ۶۶ : زان گشت دلم خراب از هر ذرّه |
63 |
|
شمارهٔ ۶۷ : هر یک ز دگر یک نگران میبینم |
63 |
|
شمارهٔ ۶۳ : چون بادیهٔ عشق، مرا پیش آمد |
81 |
|
شمارهٔ ۶۴ : آن دم که چو بحر کل شود ذات مرا |
81 |
|
شمارهٔ ۶۵ : یک قطرهٔ بحرم من و یک قطره نیم |
75 |
|
شمارهٔ ۶۸ : در عشق نه پیدا و نه پنهانم من |
76 |
|
شمارهٔ ۷۰ : در عالم عشق محو و ناچیز شدیم |
61 |
|
شمارهٔ ۷۲ : در واقعهای سخت عجب افتادم |
66 |
|
شمارهٔ ۷۵ : آن مرغ عجب در آشیان کی گنجد |
72 |
|
شمارهٔ ۶۹ : در عشق وجود و عدمم یک سان است |
93 |
|
شمارهٔ ۷۱ : ای بس که چه دشوار و چه آسان مُردیم |
88 |
|
شمارهٔ ۷۳ : آن وقت که گفتمی که ناشاد منم |
88 |
|
شمارهٔ ۷۴ : تن، سایهٔ جان رنج پروردهٔ ماست |
56 |
|
شمارهٔ ۷۷ : دل سوختهٔ جمال او میبینم |
68 |
|
شمارهٔ ۸۰ : بر خاک بسی نشستم از غمناکی |
50 |
|
شمارهٔ ۸۱ : میآیم و بس چون خجلی میآیم |
52 |
|
شمارهٔ ۷۶ : آن راز که پیوسته از آن میپرسم |
77 |
|
شمارهٔ ۷۸ : ما مذهبِ عشقِ روی آن مه داریم |
72 |
|
شمارهٔ ۷۹ : پیوسته حریفِ جان فزایم باید |
78 |
|
شمارهٔ ۸۲ : چون چهرهٔ خورشید وَشَش روشن تافت |
78 |
|
شمارهٔ ۸۳ : در محو دلم ز خویشتن مانَد باز |
73 |
|
شمارهٔ ۸۹ : نقدی که مراست قیمتش هست بسی |
80 |
|
شمارهٔ ۸۴ : از عشق تو آمدم به جان چتوان کرد |
67 |
|
شمارهٔ ۸۵ : گه عشق تو در میان جان دارم من |
62 |
|
شمارهٔ ۸۶ : چون نیست زمانی سر خویشم بی تو |
76 |
|
شمارهٔ ۸۷ : چون دوست به دست روح، پیغامم داد |
64 |
|
شمارهٔ ۸۸ : پیوسته دلم شیفتهٔ آن راز است |
71 |
|
شمارهٔ ۹۰ : ای آن که درین حبس جهان ماندهای |
84 |
|
شمارهٔ ۴ : با دانش او بیخبری داند بود |
67 |
|
شمارهٔ ۹۱ : گاهی بیخود، بی سر و بی پا برویم |
77 |
|
شمارهٔ ۹۲ : هر سر زدهای ز سرِّ ما آگه نیست |
79 |
|
شمارهٔ ۹۳ : چندین که روی و نیک یا بد بینی |
75 |
|
شمارهٔ ۹۴ : مردان می معرفت به اقبال کشند |
86 |
|
شمارهٔ ۱ : آن دید بقا که جز بقا هیچ ندید |
69 |
|
شمارهٔ ۲ : میپنداری که در همه کون کسی است |
69 |
|
شمارهٔ ۳ : در سایهٔ فقر صد جهان، وانهمه هیچ |
60 |
|
شمارهٔ ۵ : در حضرت توحید پس و پیش مدان |
89 |
|
شمارهٔ ۶ : گر بر در آفتاب روشن باشم |
79 |
|
شمارهٔ ۷ : عشقش به وجود متّهم کرد تو را |
70 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ای پردهٔ پندار پسندیدهٔ تو |
68 |
|
شمارهٔ ۸ : این هر دو جهان عکس کمالی پندار |
69 |
|
شمارهٔ ۹ : بگذر ز حس و خیال،ای طالب حال |
79 |
|
شمارهٔ ۱۰ : هر دل که به توحید ز درویشان است |
60 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چون محرم هم نفس نهای، تو چه کنی |
74 |
|
شمارهٔ ۱۷ : دل از می عشق مست میپنداری |
104 |
|
شمارهٔ ۱۸ : جان شیفتهٔ الست میپنداری |
69 |
|
شمارهٔ ۱۳ : شایستهٔ این هوس نهای، تو چه کنی |
67 |
|
شمارهٔ ۱۴ : هیچ است همه، وسوسهٔ خاطر چند |
63 |
|
شمارهٔ ۱۵ : تا چند ازین غرور بسیار تو را |
67 |
|
شمارهٔ ۱۶ : این قالب اگر بلند دیدی ور پست |
65 |
|
شمارهٔ ۱۹ : جانت به گُوِ تنی در افتاد و برفت |
65 |
|
شمارهٔ ۲۰ : جمشید به گلخنی در افتاد و برفت |
78 |
|
شمارهٔ ۲۲ : آخر ره دورت به کناری برسد |
78 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون هستی را نیست کسی اولیتر |
109 |
|
شمارهٔ ۲۶ : درویشی چیست مست و مفلس بودن |
84 |
|
شمارهٔ ۲۱ : در فرع کجا مشبّهی افتاده است |
58 |
|
شمارهٔ ۲۳ : هر چند که نیستی کمت خواهد بود |
88 |
|
شمارهٔ ۲۵ : ای بس که دل تو بیم دارد در پیش |
85 |
|
شمارهٔ ۲۷ : جز بیذاتی لایق درویشان نیست |
67 |
|
شمارهٔ ۲۸ : با درویشان، «کن و مکن» نتوان گفت |
53 |
|
شمارهٔ ۳۵ : در عشق مرا چون عدم محض فزود |
64 |
|
شمارهٔ ۲۹ : خلقان همه در آینهای مینگرند |
71 |
|
شمارهٔ ۳۰ : درها به فنا گشادهاند، اینت عجب! |
102 |
|
شمارهٔ ۳۱ : تا کی غم یک قطرهٔ خوناب خوریم |
73 |
|
شمارهٔ ۳۲ : دعوی وجود از سر مستی شوم است |
70 |
|
شمارهٔ ۳۳ : درویشِ تو را توانگری میبایست |
79 |
|
شمارهٔ ۳۴ : گر ما به هزار تک بخواهیم دوید |
59 |
|
شمارهٔ ۳۶ : چون در ره این کار مرا دید فزود |
91 |
|
شمارهٔ ۳۷ : از بس که در آثار نمیبینم من |
88 |
|
شمارهٔ ۳۹ : نه فخر ز سرفرازیم میآید |
78 |
|
شمارهٔ ۴۰ : من ماندهام و لیک بی من منییی |
55 |
|
شمارهٔ ۳۸ : هیچم همه تا با خود و با خویشتنم |
64 |
|
شمارهٔ ۴۱ : زان روز که در صدر خودی بنشستم |
86 |
|
شمارهٔ ۴۲ : اول همه نیستی است تا اول کار |
76 |
|
شمارهٔ ۴۳ : عمری به فنا بر دلم آوردم دست |
76 |
|
شمارهٔ ۴۷ : ای بود تو پیوسته بنا بود آخر |
65 |
|
شمارهٔ ۴ : تا نفس کم و کاست نخواهد آمد |
92 |
|
شمارهٔ ۴۴ : هیچم من و در گفت و شنید آمدهام |
147 |
|
شمارهٔ ۴۵ : این بیخودیی که من در آن افتادم |
81 |
|
شمارهٔ ۴۶ : ای دل! دیدی که هرچه دیدی هیچ است |
90 |
|
شمارهٔ ۱ : آنها که در این پرده سرایند پدید |
84 |
|
شمارهٔ ۲ : هرچیز که آن برای ما خواهد بود |
71 |
|
شمارهٔ ۳ : تا هستی تو نصیب میخواهد جست |
76 |
|
شمارهٔ ۶ : هرگه که بدان بحر محقّق برسی |
77 |
|
شمارهٔ ۷ : گر اول کار، آتش افزون گردد |
82 |
|
شمارهٔ ۹ : عاشق ز کسی نکاهد و نفزاید |
78 |
|
شمارهٔ ۵ : آن را که درین دایره جانی عجب است |
76 |
|
شمارهٔ ۸ : فانی شده، تا بود، مشوّش نشود |
71 |
|
شمارهٔ ۱۰ : چندین امل تو ای دل غافل چیست |
78 |
|
شمارهٔ ۱۱ : تا کی گردی ای دل غمناک به خون |
71 |
|
شمارهٔ ۱۳ : هم راه تن و هم ره جان او گیرد |
81 |
|
شمارهٔ ۱۵ : دلشاد مشو ز وصل اگر در طربی |
73 |
|
شمارهٔ ۱۹ : تا چند به خود درنگری چندینی |
93 |
|
شمارهٔ ۱۲ : ای دل همگی خویش در جانان باز |
67 |
|
شمارهٔ ۱۴ : گر در هیچی مایهٔ شادی و بقاست |
51 |
|
شمارهٔ ۱۶ : مرد آن باشد که هر نفس پاکتر است |
83 |
|
شمارهٔ ۱۷ : آن بهٔ که زخود کرانه بینی خود را |
87 |
|
شمارهٔ ۱۸ : گر مرد رهی ز ننگ خود پاک بباش |
74 |
|
شمارهٔ ۲۲ : اول باری پشت به آفاق آور |
67 |
|
شمارهٔ ۲۴ : عاشق شدن مرد زبون آمدنست |
71 |
|
شمارهٔ ۲۵ : گر تو بر او ز تنگ دستی آئی |
97 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گر از همگی خویشتن فرد شوی |
74 |
|
شمارهٔ ۲۰ : آن بهٔ که زعقل خود جنون یابی باز |
85 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گر میخواهی که بازیابی این راز |
87 |
|
شمارهٔ ۲۳ : آنجا که روی به پا و سر نتوان رفت |
83 |
|
شمارهٔ ۲۷ : آنرا که نظر در آن جهان باید کرد |
71 |
|
شمارهٔ ۲۸ : چون نیستی تو محض اقرار بود |
62 |
|
شمارهٔ ۲۹ : یا شادی دو کون غم انگار همه |
119 |
|
شمارهٔ ۳۰ : گر فقر شود ای که چه خوش خواهد بود |
72 |
|
شمارهٔ ۳۱ : راهی که درو پای ز سر باید کرد |
68 |
|
شمارهٔ ۳۲ : آن جوهر پوشیده به هر جان نرسد |
78 |
|
شمارهٔ ۳۳ : از پس منشین یک دم و در پیش مباش |
114 |
|
شمارهٔ ۳۴ : تا کی باشی بی سر و بن، هیچ مباش |
83 |
|
شمارهٔ ۳۸ : گر با من خویش خاک این در آئی |
85 |
|
شمارهٔ ۳۹ : گاهی ز خیال دلبر آئی زنده |
50 |
|
شمارهٔ ۴۱ : تا هیچ وجود و عدمت میماند |
74 |
|
شمارهٔ ۳۵ : آن به که همی سوزی و پیدا نکنی |
67 |
|
شمارهٔ ۳۶ : گر تو همه داری همه در آتش باش |
64 |
|
شمارهٔ ۳۷ : گر بودِ خود از عشق نبودی بینی |
101 |
|
شمارهٔ ۴۰ : ای مانده به جان این جهانی زنده |
57 |
|
شمارهٔ ۴۶ : در عشق تو زاری وندم آوردیم |
64 |
|
شمارهٔ ۴۷ : ما هر دو جهان زیر قدم آوردیم |
60 |
|
شمارهٔ ۴۲ : پیوسته به چشم دل نظر باید کرد |
83 |
|
شمارهٔ ۴۳ : در قرب تو گر هست دل دیوانهست |
79 |
|
شمارهٔ ۴۴ : در عشق تو سودا و جنون بنهادیم |
57 |
|
شمارهٔ ۴۵ : در عشق تو رازی و نیاز آوردیم |
69 |
|
شمارهٔ ۴۸ : گر ما همگی خویش چون ذرّه کنیم |
67 |
|
شمارهٔ ۴۹ : جانا ز غم عشق تو جانم خون شد |
67 |
|
شمارهٔ ۵۳ : در بحر فنا به آب در خواهم شد |
67 |
|
شمارهٔ ۵۴ : بنگر که چه غم بیتو کشیدم آخر |
83 |
|
شمارهٔ ۵۵ : در عشق نشان و خبر من برسید |
65 |
|
شمارهٔ ۵۶ : دل از طمع خام چنان بریان شد |
81 |
|
شمارهٔ ۵۰ : تا شد دلم از بوی می عشق تو مست |
74 |
|
شمارهٔ ۵۱ : با هستی خویش داوری خواهم کرد |
62 |
|
شمارهٔ ۵۲ : جانا چو ره تو راه ذُلّ و عِزْ نیست |
95 |
|
شمارهٔ ۵۷ : هر لحظه دهد عشق توام سرشوئی |
55 |
|
شمارهٔ ۵۹ : هر لحظه ز عشق در سجودی دگرم |
112 |
|
شمارهٔ ۶۰ : سر تا پایم نقطهٔ آرام کنید |
73 |
|
شمارهٔ ۶۲ : وقتست که بیزحمت جان بنشینم |
69 |
|
شمارهٔ ۶۳ : از ننگ وجودم که رهاند بازم |
81 |
|
شمارهٔ ۶۴ : بی جان و تنم جان و تنم میباید |
77 |
|
شمارهٔ ۵۸ : گفتم: ز فناء خود چنانم که مپرس |
86 |
|
شمارهٔ ۶۱ : از بس که دلم به بینشان داشت نیاز |
48 |
|
شمارهٔ ۱ : آن راه که راه عالم عرفان است |
91 |
|
شمارهٔ ۲ : هر ذات که در تصرّف دوران است |
112 |
|
شمارهٔ ۶ : گر عقل مرا مصلحت اندیش آمد |
89 |
|
شمارهٔ ۸ : مائیم و نصیب جز جگر خواری نه |
81 |
|
شمارهٔ ۶۵ : خوش خواهدبود، اگر فنا خواهد بود |
81 |
|
شمارهٔ ۳ : چندان که نگاه میکنم حیرانی است |
69 |
|
شمارهٔ ۴ : بنشین که اگر بسی گذر خواهی کرد |
82 |
|
شمارهٔ ۵ : بر بوی یقین درین بیابان رفتیم |
62 |
|
شمارهٔ ۷ : احوالِ جهان سخت عجیب افتادهست |
65 |
|
شمارهٔ ۱۲ : ای دل هر دم غم دگرگون میخور |
66 |
|
شمارهٔ ۹ : دانی که چهایم نه بزرگیم نه خُرد |
72 |
|
شمارهٔ ۱۰ : مائیم در اوفتاده چون مرغ به دام |
61 |
|
شمارهٔ ۱۱ : از آرزوی یقین چو مینتوان زیست |
91 |
|
شمارهٔ ۱۳ : این درد چه دردیست که درمانش نیست |
79 |
|
شمارهٔ ۱۴ : حالِ دلِ باژگونه مینتوان گفت |
76 |
|
شمارهٔ ۱۵ : دل از همه عالم به کنار آمد باز |
61 |
|
شمارهٔ ۱۷ : آن میخواهم که جایگاهی گیرم |
68 |
|
شمارهٔ ۱۸ : هر روز غمی به امتحانم آمد |
62 |
|
شمارهٔ ۲۰ : زانگه که بقا روی نمودست مرا |
67 |
|
شمارهٔ ۲۱ : امروز منم ذوقِ خرد نادیده |
78 |
|
شمارهٔ ۱۶ : دردا که بجز درد مرا کار نبود |
83 |
|
شمارهٔ ۱۹ : دردا که ز خود بیخبرم باید مرد |
69 |
|
شمارهٔ ۲۲ : آگاه نیم از دل و جانم که چه بود |
92 |
|
شمارهٔ ۲۳ : چون عمر بشد زادِ رهم از «چه کنم» |
65 |
|
شمارهٔ ۲۴ : بس رنج کشم طرب نمیدانم چیست |
92 |
|
شمارهٔ ۲۷ : سرگردانی بسوخت جانم چه کنم |
62 |
|
شمارهٔ ۲۸ : سبحان الله! بر صفتی حیرانم |
74 |
|
شمارهٔ ۲۹ : از پای در آمدم ز سرگردانی |
77 |
|
شمارهٔ ۲۵ : چون چارهٔ خویش میندانم چه کنم |
68 |
|
شمارهٔ ۲۶ : دل نیست مرا، یکی مصیبت خانهست |
72 |
|
شمارهٔ ۳۰ : از دنیی فانیم جوی نیست پدید |
93 |
|
شمارهٔ ۳۳ : امروز منم شیفتهای حیرانی |
68 |
|
شمارهٔ ۳۶ : گر برکشم از سینهٔ پرخون آهی |
64 |
|
شمارهٔ ۳۱ : نه در سفرم یک دم و نی در حضرم |
94 |
|
شمارهٔ ۳۲ : چندان که بدین قصه فرو مینگرم |
106 |
|
شمارهٔ ۳۴ : امروز منم ز خان و از مان بیرون |
80 |
|
شمارهٔ ۳۵ : گه چون مه از آرزوی حق کاستهایم |
94 |
|
شمارهٔ ۳۷ : از هم نفسانم اثری نیست امروز |
63 |
|
شمارهٔ ۳۸ : دل هرچه که دید خشک لب دید همه |
77 |
|
شمارهٔ ۴۲ : نی کس خبری میدهد از پیشانم |
81 |
|
شمارهٔ ۴۳ : هر لحظه تحیر به شبیخون آید |
62 |
|
شمارهٔ ۴۵ : در بادیهٔ جهان دری بنمایید |
61 |
|
شمارهٔ ۳۹ : چندان که مرا عقل و بصر خواهد بود |
65 |
|
شمارهٔ ۴۰ : چندان که مرا عقل به تن خواهد بود |
76 |
|
شمارهٔ ۴۱ : چون بیخبرم از آنکه تقدیرم چیست |
78 |
|
شمارهٔ ۴۴ : چندان که ز هر شیوه سخن میگویم |
81 |
|
شمارهٔ ۴۶ : یک بیدل و بیرأی چو من بنمایید |
47 |
|
شمارهٔ ۱ : ای بلبلِ روح مبتلا ماندهای |
87 |
|
شمارهٔ ۲ : ای روح! تویی به عقل موصوف آخر |
70 |
|
شمارهٔ ۳ : ای مرغ عجب! ستارگان چینهٔ تست |
101 |
|
شمارهٔ ۴ : گه در غم روزگار و گه در قهری |
60 |
|
شمارهٔ ۴۷ : دل رفت و جگر با دل ریش آمد باز |
73 |
|
شمارهٔ ۴۸ : من زین دل بیخبر بجان آمدهام |
83 |
|
شمارهٔ ۵ : ای جان! چو تو از عالم بیچون آیی |
69 |
|
شمارهٔ ۶ : ای روح! درین عالم غربت چونی |
85 |
|
شمارهٔ ۷ : ای باز خرد! مباش گمراه آخر |
69 |
|
شمارهٔ ۸ : ای جانِ شریف! ترک این دنیی گیر |
68 |
|
شمارهٔ ۹ : ای بلبل روح چند باشی مگسی |
75 |
|
شمارهٔ ۱۰ : بر جان و تنِ بیش بها میگریم |
70 |
|
شمارهٔ ۱۱ : با ما بنشین که هر دو همدم بودیم |
95 |
|
شمارهٔ ۱۲ : دل را که هزار باره در خون کشمش |
68 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای آن که به قدر برتر از افلاکی |
72 |
|
شمارهٔ ۱۴ : ای آن که در این ره صفتاندیش نهای |
77 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گر مرغِ دلت کارِ روش ساز کند |
60 |
|
شمارهٔ ۲۰ : ای بس که فلک در صف انجم گردد |
89 |
|
شمارهٔ ۱۵ : چیزی که توئی زین تن مسکین تو نهای |
91 |
|
شمارهٔ ۱۶ : بندیش که بر زمین نهای آن که تویی |
79 |
|
شمارهٔ ۱۷ : ای وهم و خیال و حسِّ تو رهزن تو |
82 |
|
شمارهٔ ۱۸ : آن ذات که جسم و جوهرش اسم بود |
70 |
|
شمارهٔ ۲۱ : جانی که به نورِ حق ندارد امّید |
61 |
|
شمارهٔ ۲۲ : جانی که نهفت زنگ دنیی او را |
59 |
|
شمارهٔ ۲۴ : گر نفس تو بسملی شود تا دانی |
72 |
|
شمارهٔ ۲۳ : هر دیده که راه بینشانی نشناخت |
60 |
|
شمارهٔ ۲۵ : سِرّی که به تو رسد ز خود پنهان دار |
74 |
|
شمارهٔ ۲۶ : در هر دو جهان هر چه عجب داشتهای |
96 |
|
شمارهٔ ۲۷ : پنهان گهریست در پسِ پردهٔ راز |
61 |
|
شمارهٔ ۲۸ : از پردهٔ خود برون شدن عین خطاست |
87 |
|
شمارهٔ ۲۹ : هر چند که کارهای تو بسیاریست |
87 |
|
شمارهٔ ۳۱ : آنجا که فروغ عالم جان بینی |
65 |
|
شمارهٔ ۳۰ : هر جان که ز حق حمایتی افتادهست |
87 |
|
شمارهٔ ۳۲ : چون آینه پشت و رو شود یکسانت |
58 |
|
شمارهٔ ۳۳ : هر راز که هم پردهٔ جان تو شود |
70 |
|
شمارهٔ ۳۴ : تن از پی کارِ خویش سرگردان است |
97 |
|
شمارهٔ ۳۵ : کردم ورقِ وجودِّ تو با تو بیان |
78 |
|
شمارهٔ ۳۶ : هر سر که درین هر دو جهان داشتهاند |
83 |
|
شمارهٔ ۳۷ : گاه از غم اودست ز جان میشویی |
94 |
|
شمارهٔ ۳۸ : ای از تن منقلب گذر ناکرده |
67 |
|
شمارهٔ ۳۹ : خوش باش که دل تمام میباز رهد |
92 |
|
شمارهٔ ۴۱ : مرگ است خلاص عالم فانی را |
70 |
|
شمارهٔ ۴۲ : یک یک نفست زمان تو خواهد بود |
98 |
|
شمارهٔ ۱ : میپنداری که جان توانی دیدن |
91 |
|
شمارهٔ ۴۰ : دانی تو که مرگ چیست از تن رستن |
79 |
|
شمارهٔ ۴۳ : چون اصلِ اصول هست در نقطهٔ جان |
57 |
|
شمارهٔ ۴۴ : تا مرغ دلم شیوهٔ دمساز شناخت |
83 |
|
شمارهٔ ۴ : قومی ز محال در جنون افتادند |
85 |
|
شمارهٔ ۶ : از ذرّه ز اندازهٔ ذرّات مپرس |
48 |
|
شمارهٔ ۷ : در عقل اصول شرع از جان بپذیر |
69 |
|
شمارهٔ ۲ : هرگه که تو طالب گهر خواهی بود |
70 |
|
شمارهٔ ۳ : آن نقطه که کیمیای دولت آن است |
75 |
|
شمارهٔ ۵ : جانهاست در آن جهان بر انبار زده |
80 |
|
شمارهٔ ۸ : قسمی که ز چرخ پرده در داشتهای |
71 |
|
شمارهٔ ۱۲ : دردا که دلم واقف آن راز نشد |
88 |
|
شمارهٔ ۱۴ : از معنی عشق اسم میبینم و بس |
66 |
|
شمارهٔ ۹ : تا عالِمِ جهل خود نگردی به نخست |
88 |
|
شمارهٔ ۱۰ : نه در صفِ صاحبنظران خواهی مُرد |
81 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هر چند ز ننگِ خود خبردار نهایم |
71 |
|
شمارهٔ ۱۳ : هم عقل درین واقعه مضطر افتاد |
79 |
|
شمارهٔ ۱۵ : جان گرچه درین بادیه بسیار شتافت |
71 |
|
شمارهٔ ۱۶ : دل در پی راز عشق، دلمرده بماند |
50 |
|
شمارهٔ ۲۴ : دل او کاکح دیدار نداشت |
109 |
|
شمارهٔ ۱۷ : دل بر سرِ این راه خطرناک بسوخت |
114 |
|
شمارهٔ ۱۸ : دل خون شد و سررشتهٔ این راز نیافت |
61 |
|
شمارهٔ ۱۹ : این دل که بسوخت روز و شب در تک و تاز |
70 |
|
شمارهٔ ۲۰ : دل شیوهٔ عشق یک نفس باز نیافت |
90 |
|
شمارهٔ ۲۱ : رازی که دل من است سرگشتهٔ آن |
88 |
|
شمارهٔ ۲۲ : شد رنجِ دلم فَرِهْ چه تدبیر کنم |
67 |
|
شمارهٔ ۲۳ : دل والِه و عقل مست و جان حیران است |
80 |
|
شمارهٔ ۲۷ : هم قصّهٔ یار میبنتوان گفتن |
66 |
|
شمارهٔ ۳۰ : از دست بشد تن و توانم چه کنم |
77 |
|
شمارهٔ ۳۱ : در حیرانی بنده وآزاد هنوز |
72 |
|
شمارهٔ ۲۵ : آن قوم که جامه لاجوردی کردند |
78 |
|
شمارهٔ ۲۶ : جان معنی لطف و قهر نتواند بود |
64 |
|
شمارهٔ ۲۸ : نه هیچ کس از قالب دین مغز چشید |
77 |
|
شمارهٔ ۲۹ : این درد جگرسوز که در سینه مراست |
116 |
|
شمارهٔ ۳۲ : تیری که ز شستِ حکمِ جانان گذرد |
90 |
|
شمارهٔ ۳۳ : گاه از شادی چو شمع میافروزم |
68 |
|
شمارهٔ ۳۴ : جانا! ز غم عشق تو فریاد مرا |
88 |
|
شمارهٔ ۳۵ : زلفت که از او نفع و ضرر در غیب است |
70 |
|
شمارهٔ ۳۶ : بیچاره دلم که راحت جان میجست |
49 |
|
شمارهٔ ۳۷ : هم شیوهٔ سودای تو نتوان دانست |
64 |
|
شمارهٔ ۳۸ : پای از تو فرو شد به گِلم میدانی |
70 |
|
شمارهٔ ۳۹ : آنها که درین درد مرا میبینند |
75 |
|
شمارهٔ ۴۰ : دل سِرّ تو در نو و کهن بازنیافت |
92 |
|
شمارهٔ ۴۱ : جز درد تو درمان دل ریشم نیست |
106 |
|
شمارهٔ ۴۲ : حالم ز من سوخته خرمن بمپرس |
84 |
|
شمارهٔ ۴۳ : هجرِ تو هلاکِ من بگوید با تو |
85 |
|
شمارهٔ ۴۴ : غم کشته و رنج دیده خواهم مردن |
69 |
|
شمارهٔ ۴۵ : چون کار ز دست رفت گفتار چه سود |
75 |
|
شمارهٔ ۴۶ : گر جان گویم عاشق آن دیدار است |
78 |
|
شمارهٔ ۴۷ : دل رفت و نگفت دلستانم که چه بود |
90 |
|
شمارهٔ ۴۸ : عمری دل این سوخته تن در خون داد |
87 |
|
شمارهٔ ۴۹ : جز جان، صفت جان، که تواند گفتن |
71 |
|
شمارهٔ ۵۰ : جانی که به رمز، قصّهٔ جانان گفت |
70 |
|
شمارهٔ ۵۱ : در فقر، دل و روی سیه باید داشت |
70 |
|
شمارهٔ ۵۲ : سرّی که دلِ دو کَوْن خون داند کرد |
87 |
|
شمارهٔ ۱ : چندان که تو اسرار حقیقت خواهی |
75 |
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شمارهٔ ۲ : اول میلم چو از همه سویی بود |
87 |
|
شمارهٔ ۴ : آواز آمد مرا که در جستن دوست |
76 |
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شمارهٔ ۵ : عمری چو فلک ز تگ نمیفرسودم |
69 |
|
شمارهٔ ۶ : هرچند دریغ صدهزار است هنوز |
86 |
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شمارهٔ ۹ : هر دم سگ نفس با دلم باز نهد |
77 |
|
شمارهٔ ۳ : ناکرده وجودم بدل اینجا چه کنم |
81 |
|
شمارهٔ ۷ : گفتم که شد از نفس پلیدم، دل، پاک |
78 |
|
شمارهٔ ۸ : تا با سگ نفس همنشین خواهم بود |
73 |
|
شمارهٔ ۱۰ : نفسی دارم که هر نفس مِه گردد |
63 |
|
شمارهٔ ۱۱ : از آتش شهوت جگرم میسوزد |
81 |
|
شمارهٔ ۱۲ : خون شد جگرم ز غصّهٔ خویش مرا |
78 |
|
شمارهٔ ۱۵ : گاهم ز سگ نفس مشوش بودن |
73 |
|
شمارهٔ ۱۶ : این نفس کم انگاشته آید آخر |
71 |
|
شمارهٔ ۱۳ : دل را که نه دنیا و نه دین میبینم |
80 |
|
شمارهٔ ۱۴ : از جان سیرم ازانک تن میخواهد |
83 |
|
شمارهٔ ۱۷ : چون نفس سگیست بدگمان چتوان کرد |
72 |
|
شمارهٔ ۲۰ : آنجا که فنای نامداران باید |
70 |
|
شمارهٔ ۲۱ : ای نفس فرو گرفته سر تا سر تو |
78 |
|
شمارهٔ ۲۳ : بد چند کنی کار نکو کن بنشین |
72 |
|
شمارهٔ ۱۸ : هر دل که ز سرِّ کار آگاهی داشت |
72 |
|
شمارهٔ ۱۹ : آنها که مدام از پس این کار شوند |
80 |
|
شمارهٔ ۲۲ : ای در غم نان و جامه و آز و نیاز |
82 |
|
شمارهٔ ۲۴ : هر دل که به نفس ره به آگاهی برد |
50 |
|
شمارهٔ ۲۵ : از کس چو سخن نمیپذیری آخر |
103 |
|
شمارهٔ ۲۸ : مائیم به امر، پای ناآورده |
59 |
|
شمارهٔ ۲۶ : ای عقلِ تو کرده مبتلای خویشت |
66 |
|
شمارهٔ ۲۷ : دردا که دلی که در جهان کار نداشت |
77 |
|
شمارهٔ ۲۹ : گاهی به هوس حرف فنا میخوانیم |
81 |
|
شمارهٔ ۳۰ : مائیم که نه سوخته و نه خامیم |
86 |
|
شمارهٔ ۳۱ : یک عاشق پاک و یک دل زنده کجاست |
75 |
|
شمارهٔ ۳۲ : دردا که غرور بود و بسیاری بود |
42 |
|
شمارهٔ ۳۵ : گه خلوت بینِ هفت گلشن بودم |
77 |
|
شمارهٔ ۳۳ : بیچاره دلم که خویش حُرْ میپنداشت |
104 |
|
شمارهٔ ۳۴ : مسکین دل من تخم طلب کاشته بود |
53 |
|
شمارهٔ ۱ : هر جان که بدان سرِّ معما نرسید |
92 |
|
شمارهٔ ۲ : هر دل که بجان طریق دمساز نیافت |
93 |
|
شمارهٔ ۳ : سنگی که نه در فروغِ خور خواهد ماند |
61 |
|
شمارهٔ ۴ : مردند همه، در هوسی، چتوان کرد |
71 |
|
شمارهٔ ۵ : کو دل که بداند نفسی اسرارش |
106 |
|
شمارهٔ ۶ : گر دیدهوری مرد لقا باید شد |
62 |
|
شمارهٔ ۷ : چون می بتوان به پادشاهی مردن |
69 |
|
شمارهٔ ۸ : ای در طلب گره گشائی مرده |
75 |
|
شمارهٔ ۹ : ای همچو سگی به استخوانی قانع |
91 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ای جان تو در ذُلِّ جدائی قانع |
73 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هرگاه که سِرِّ معرفت یابی باز |
63 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چون مرغ دلم حوصلهٔ راز نیافت |
53 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای مرد فسرده راز مینشناسی |
91 |
|
شمارهٔ ۱۴ : از مال همه جهان جوی داری تو |
74 |
|
شمارهٔ ۱۵ : کو عقل که قصد آن جلالت کردی |
81 |
|
شمارهٔ ۱۶ : چون حوصله نیست تا خبر خواهد شد |
75 |
|
شمارهٔ ۱۷ : چون بسیارم تجربه افتاد از خویش |
84 |
|
شمارهٔ ۱۸ : جانا جانم غرقهٔ دریای تو بود |
73 |
|
شمارهٔ ۱۹ : این کار که عشق تو مرا پیش آورد |
70 |
|
شمارهٔ ۲۰ : در بادیهٔ تو منزلی میباید |
69 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گر یک دم پاک می برآید از من |
63 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون طاقت عشق تو ندارم آخر |
74 |
|
شمارهٔ ۲۵ : چون خون دلم بی تو بخوردم آخر |
67 |
|
شمارهٔ ۲۷ : جان نتواند ز عشق بر جای بُدن |
69 |
|
شمارهٔ ۲۲ : در عشق رخت علم و خرد باختهام |
84 |
|
شمارهٔ ۲۳ : دل در طلب وصال تو جان میباخت |
58 |
|
شمارهٔ ۲۶ : در قلزم عشق تو که دیار نماند |
56 |
|
شمارهٔ ۲۸ : آهی که ز دست غم برآرم بی تو |
68 |
|
شمارهٔ ۲۹ : هر روز ره عشق تو از سر گیرم |
78 |
|
شمارهٔ ۳۰ : هر کس که ز زلف تو ندارد تابی |
83 |
|
شمارهٔ ۳ : هر کز پی دنیای دنی خواهد بود |
75 |
|
شمارهٔ ۱ : تا کی ز جهان رنج و ستم باید دید |
95 |
|
شمارهٔ ۲ : دریاست جهان که تخت اینجا بنهد |
88 |
|
شمارهٔ ۴ : دنیای دنی چیست سرای ستمی |
98 |
|
شمارهٔ ۵ : چون هست جهان جایگه رسوایی |
107 |
|
شمارهٔ ۶ : دود است همه جهان، جهان دود انگار |
50 |
|
شمارهٔ ۷ : این دنیای غدار چه خواهی کردن |
61 |
|
شمارهٔ ۸ : از شعبدهٔ جهان چه برخواهد خاست |
93 |
|
شمارهٔ ۹ : دنیا که جوی وفا ندارد در پوست |
105 |
|
شمارهٔ ۱۰ : دنیا چه کنی چو بیوفا خواهد بود |
85 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ای دل تَبَعِ دُنیی غدّار مشو |
84 |
|
شمارهٔ ۱۲ : گر هر دو جهان فی المثل انگشتری است |
100 |
|
شمارهٔ ۱۵ : یک حاجت بیدلی روا مینکنند |
76 |
|
شمارهٔ ۱۸ : بویی که به جان ممتحن میآید |
59 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گه خستهٔ لن ترانیم موسی وار |
57 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای دل ای دل غم جهان چند خوری |
71 |
|
شمارهٔ ۱۴ : چون نیست درین چاه بلا دسترسیت |
72 |
|
شمارهٔ ۱۶ : جان رفت و به ذوق زندگانی نرسید |
68 |
|
شمارهٔ ۱۷ : هر دم که زنم چو جانم آید به لبم |
62 |
|
شمارهٔ ۲۰ : هر روز درین دایره سرگشتهترم |
66 |
|
شمارهٔ ۲۵ : تا کی خود را ز هجر دلبند کشم |
63 |
|
شمارهٔ ۲۶ : هر دم دل من زچرخ بندی دارد |
56 |
|
شمارهٔ ۲۷ : بر دل ز غم زمانه باری دارم |
68 |
|
شمارهٔ ۲۱ : تا کی باشم عاجز و مضطر مانده |
66 |
|
شمارهٔ ۲۲ : روزی نه که دل قصهٔ دمساز نخواند |
48 |
|
شمارهٔ ۲۳ : امروز منم به جان و تن درمانده |
78 |
|
شمارهٔ ۲۴ : در عشق چو من کسی نه بیچاره شود |
57 |
|
شمارهٔ ۲۸ : جز بیخبری هیچ خبر نیست مرا |
68 |
|
شمارهٔ ۳۰ : بگرفت ز نااهل جهانی غم ازین |
66 |
|
شمارهٔ ۲ : دل را همه عمر محرمی دست نداد |
67 |
|
شمارهٔ ۲۹ : با نااهلی که نان خورم خون شمرم |
95 |
|
شمارهٔ ۱ : دل خون شد و کس محرم این راز نیافت |
132 |
|
شمارهٔ ۳ : سرمایهٔ عالم درمی بیش نبود |
85 |
|
شمارهٔ ۴ : دردا که درین سوز و گدازم کس نیست |
112 |
|
شمارهٔ ۵ : کو مستمعی تا سخنش برگویم |
72 |
|
شمارهٔ ۷ : چشم من دلخسته به هر انجمنی |
97 |
|
شمارهٔ ۸ : چندانکه به درد عشق میپویم من |
84 |
|
شمارهٔ ۹ : آنکس که غمِ کهنه و نو میداند |
97 |
|
شمارهٔ ۱۰ : کی باشد و کی که من مانم و او |
59 |
|
شمارهٔ ۶ : این سوز که خاست با که بتوانم گفت |
78 |
|
شمارهٔ ۱۱ : آنکس که نه غم خوارگیم خواهد کرد |
74 |
|
شمارهٔ ۱۲ : در پای بلا فتادهام، چتوان کرد |
59 |
|
شمارهٔ ۱۳ : دردا که ز درد ناکسی میمیرم |
69 |
|
شمارهٔ ۱۴ : پیوسته زبون روزگار آمدهام |
62 |
|
شمارهٔ ۱۵ : یک دم دل محنت کشم آسوده نشد |
73 |
|
شمارهٔ ۱۶ : ای آن که بکلّی دل و جان داده نهای |
78 |
|
شمارهٔ ۱۷ : هر دل که نه در زمانه روز افزون شد |
70 |
|
شمارهٔ ۱۸ : هر انجمنی، در انجمن ماندهاند |
68 |
|
شمارهٔ ۲۰ : با قوّت پیل، مور میباید بود |
110 |
|
شمارهٔ ۲۱ : با اهل، توان قصد معانی کردن |
75 |
|
شمارهٔ ۲ : تدبیر تو چیست بغض با حب کردن |
78 |
|
شمارهٔ ۱۹ : قومی که زمین به یک زمان بگرفتند |
70 |
|
شمارهٔ ۲۲ : من، توبهٔ عامی، به گناهی نخرم |
60 |
|
شمارهٔ ۲۳ : هرکو سخنی شنود، یکبار، از من |
55 |
|
شمارهٔ ۱ : خواهی که ز پرده محرم آیی بیرون، |
69 |
|
شمارهٔ ۳ : تو خسته نهیی ز عشق، ور خستهئییی |
61 |
|
شمارهٔ ۴ : تا کی هنر خویش پدیدار کنی |
73 |
|
شمارهٔ ۵ : بد چند کنی کار نکو کن، بنشین |
90 |
|
شمارهٔ ۶ : تا بر ره خلق مینشینی ای دل |
83 |
|
شمارهٔ ۷ : ای دل هر دم غمی دگرگون میخور |
67 |
|
شمارهٔ ۸ : چون درد ترا تا به ابد درمان نیست |
70 |
|
شمارهٔ ۹ : ای دل همه چارهٔ تو بیچارگی است |
72 |
|
شمارهٔ ۱۰ : زین شیوه که اکنون دل دیوانه گرفت |
72 |
|
شمارهٔ ۱۲ : اوّل دل من بر سر غوغا بنشست |
73 |
|
شمارهٔ ۱۳ : در راه تعب ترک طرب باید کرد |
53 |
|
شمارهٔ ۱۴ : درعالم مرگ زندگانی دور است |
68 |
|
شمارهٔ ۱۱ : جانا دل من خویش به دریا انداخت |
77 |
|
شمارهٔ ۱۵ : مردی چه بود رند و مقامر بودن |
82 |
|
شمارهٔ ۱۶ : از جزو به سوی کل سفر باید کرد |
61 |
|
شمارهٔ ۱۷ : هر پرده که بند پرده در خواهد خاست |
85 |
|
شمارهٔ ۱۸ : گر دریائی ز شور بنشانندت |
56 |
|
شمارهٔ ۱۹ : تا کی باشی چو آسمان در تک و تاز |
66 |
|
شمارهٔ ۲۰ : گر همچو فلک سالک پیوسته شوی |
82 |
|
شمارهٔ ۲۱ : هر روز مرا غمی دگر پیش آید |
66 |
|
شمارهٔ ۱ : ذوق شکر از چشیدن آمد حاصل |
79 |
|
شمارهٔ ۲ : فرّخ دل آن که مُرد حیران و نگفت |
80 |
|
شمارهٔ ۳ : خود را به طریق چاره میباید کرد |
73 |
|
شمارهٔ ۴ : امروز دلی سخن نیوش اولیتر |
84 |
|
شمارهٔ ۵ : ای دل چو شراب معرفت کردی نوش |
96 |
|
شمارهٔ ۶ : تا چند زنی ای دلِ برخاسته جوش |
73 |
|
شمارهٔ ۷ : تا چشم ز دیدارِ جهان در بستیم |
66 |
|
شمارهٔ ۸ : ای دل شب و روز چند جوشی، بنشین |
86 |
|
شمارهٔ ۹ : تا کی زنی ای دل خسته جوش |
81 |
|
شمارهٔ ۱۱ : گر بحرنهای، ز جوش بنشین آخر |
76 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ای دل به سخن مگرد در خون پس ازین |
89 |
|
شمارهٔ ۱۲ : گر نام ونشان من توانستی بود |
98 |
|
شمارهٔ ۱۴ : در فقر، سیاه پوشیم اولیتر |
76 |
|
شمارهٔ ۱۳ : چون لوح دل از دو کون بستردم من |
167 |
|
شمارهٔ ۱۵ : در عشق تو از بس که خروش آوردیم |
120 |
|
شمارهٔ ۱۶ : هر چند که نیست هیچ از حق خالی |
66 |
|
شمارهٔ ۱۷ : چون برفکنند از همه چیزی سرپوش |
64 |
|
شمارهٔ ۱۸ : دل در پی راز عشق، پویان میدار |
83 |
|
شمارهٔ ۱۹ : در عالم توحید به کس هیچ مگوی |
102 |
|
شمارهٔ ۲۰ : تا برجایی بجای میباش و خموش! |
83 |
|
شمارهٔ ۲۱ : هر چند ترا محرم اسراری نیست |
93 |
|
شمارهٔ ۲۲ : تا کی به سخن زبان خروشان داری |
64 |
|
شمارهٔ ۲۳ : تا چند زنی منادی، ای سر که فروش! |
60 |
|
شمارهٔ ۲۴ : گر خواهی تو که وقت خود داری گوش |
84 |
|
شمارهٔ ۲۵ : اجزای تو جمله گوش میباید و بس |
72 |
|
شمارهٔ ۲۶ : آن به که نفس ز کارِ عالم نزنی |
68 |
|
شمارهٔ ۱ : خواهی که دلت محرم اسرار آید |
83 |
|
شمارهٔ ۲ : هر چند که در ره دراز استادی |
93 |
|
شمارهٔ ۴ : گر میخواهی که مرد مقبول شوی |
73 |
|
شمارهٔ ۵ : در راه طلب مرد بهمت باید |
85 |
|
شمارهٔ ۳ : نه جان تو با سرّ الاهی پرداخت |
112 |
|
شمارهٔ ۶ : ای مرد رونده مرد بیچاره مباش |
350 |
|
شمارهٔ ۷ : تا مرغ دل تو بال وپر نگشاید |
81 |
|
شمارهٔ ۸ : تا کی دل تو گرد جهان بر پرّد |
67 |
|
شمارهٔ ۹ : تا چند نه آرام ونه بشتافتنت |
64 |
|
شمارهٔ ۱۰ : از غیب گرت هست نشان آوردن |
75 |
|
شمارهٔ ۱۱ : گر مرد رهی راه نهان باید رفت |
89 |
|
شمارهٔ ۱۳ : رعنائی و نازکی رها باید کرد |
54 |
|
شمارهٔ ۱۴ : کو راه روی که ره نوردش گویم |
78 |
|
شمارهٔ ۱۲ : خواهی که به عقبی به بقایی برسی |
89 |
|
شمارهٔ ۱۵ : جان را که ز تن رحیل میباید کرد |
65 |
|
شمارهٔ ۱۶ : تا چند ز نیستی و هستی ای دل |
87 |
|
شمارهٔ ۱۷ : جانی دگرست و جانفزایی دگرست |
97 |
|
شمارهٔ ۱۸ : آن گنج که من در طلب آن گنجم |
91 |
|
شمارهٔ ۱۹ : مرغ دل من که بود چون شیدایی |
72 |
|
شمارهٔ ۲۰ : نه جان رهِ جان فزای خود یابد باز |
93 |
|
شمارهٔ ۲۱ : وقتی است که دیدهیی به دیدار کنم |
84 |
|
شمارهٔ ۲۲ : با قوّت عشق تو به جان میکوشم |
69 |
|
شمارهٔ ۲۷ : نردِ هوسِ وصال میباید باخت |
69 |
|
شمارهٔ ۲۸ : بنشستهای و بسی سفر داری تو |
77 |
|
شمارهٔ ۲۳ : در عشق تو هردلی که مردانه بود |
122 |
|
شمارهٔ ۲۴ : درعشق گمان خود عیان باید کرد |
61 |
|
شمارهٔ ۲۵ : گر مرد رهی میان خون باید رفت |
58 |
|
شمارهٔ ۲۶ : هر لحظه ز چرخ بیش میباید رفت |
98 |
|
شمارهٔ ۲۹ : چون تو غم بیشمار خودخواهی داشت |
57 |
|
شمارهٔ ۳۰ : ای آن که هزار گونه سودا داری |
72 |
|
شمارهٔ ۳۱ : از بس که غم دنیی مردار خوری |
72 |
|
شمارهٔ ۳۴ : کی نیک افتد ترا که بد میباشی |
60 |
|
شمارهٔ ۳۶ : اوّل قدمت دولت انبوه مجوی |
56 |
|
شمارهٔ ۳۲ : از دورِ فلک زیر و زبر خواهی شد |
92 |
|
شمارهٔ ۳۳ : هر چند که دریای پر آب آمد پیش |
70 |
|
شمارهٔ ۳۵ : ای دوست اگر تو دوستدار خویشی |
96 |
|
شمارهٔ ۳۸ : تو خفته وعاشقان او بیدارند |
69 |
|
شمارهٔ ۳۹ : ای پای ز دست داده در پی نرسی |
104 |
|
شمارهٔ ۳۷ : ای بیخبران دلی به جان دربندید |
89 |
|
شمارهٔ ۴۰ : دل بستهٔ روی چون نگار او کن |
45 |
|
شمارهٔ ۴۱ : گر هست درین راه سر بهبودت |
66 |
|
شمارهٔ ۴۳ : بی ره رفتن، رموز میاندیشی |
66 |
|
شمارهٔ ۴۲ : هر دل که ز سِرِّ کار آگاهی یافت |
71 |
|
شمارهٔ ۴۴ : گر باز نماید سَرِ یک موی به تو |
100 |
|
شمارهٔ ۴۵ : یادست ازین هوس بمی باید داشت |
93 |
|
شمارهٔ ۴۶ : پیوسته به دست خود گرفتاری تو |
52 |
|
شمارهٔ ۴۷ : هر گاه که گوهر محبّت جویی |
68 |
|
شمارهٔ ۴۸ : ای خلق چرا در تب و تفتید آخر |
82 |
|
شمارهٔ ۴۹ : آن را که کلید مشکلی میباید |
88 |
|
شمارهٔ ۵۰ : گه پیشرو نبرد میباید بود |
81 |
|
شمارهٔ ۱ : تا هیچ پراکنده توانی بودن |
80 |
|
شمارهٔ ۲ : تا تفرقه میبود به هر سوی از تو |
63 |
|
شمارهٔ ۴ : نه جان صفت رضای او میگیرد |
67 |
|
شمارهٔ ۳ : ای مانده ز خویش در بلایی که مپرس |
70 |
|
شمارهٔ ۵ : چون نیست کسی را سر مویی غم تو |
55 |
|
شمارهٔ ۶ : شد از تو جهان بیرخ آن ماه سیاه |
64 |
|
شمارهٔ ۷ : بس رنج و بلا کاین دل آغشته کشید |
80 |
|
شمارهٔ ۸ : هر چند که بیرون و درون خواهی دید |
67 |
|
شمارهٔ ۹ : گر جان تو در پردهٔ دین خواهد بود |
62 |
|
شمارهٔ ۱۰ : او را خواهی از زن و فرزند ببر |
119 |
|
شمارهٔ ۱۳ : دیوانه اگر مقید زنجیرست |
70 |
|
شمارهٔ ۱۴ : تا چند ترا ز پرده بیش آوردن |
78 |
|
شمارهٔ ۱۷ : شایستهٔ آن کمال مینتوان شد |
62 |
|
شمارهٔ ۱۱ : گر میخواهی که باشدت خوش آنجا |
62 |
|
شمارهٔ ۱۲ : با عشق، وجود خود برانداخته به |
80 |
|
شمارهٔ ۱۵ : پیوستن تو به یک به یک بسیاریست |
67 |
|
شمارهٔ ۱۶ : آن را که بخود بر سر یک موی سر است |
80 |
|
شمارهٔ ۱۸ : هر لحظه هزار مشکلم پیوسته است |
92 |
|
شمارهٔ ۱۹ : نابرده می عشق، قرارت ای دل |
69 |
|
شمارهٔ ۲۳ : بی فکر دلی که هست خرّم دارش |
66 |
|
شمارهٔ ۲۰ : بگذر ز خیال آن و این، کار اینست |
114 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گر میخواهی که وقت خودداری گوش |
73 |
|
شمارهٔ ۲۲ : ای آن که تو یک نفس خوداندیش نیی |
80 |
|
شمارهٔ ۲۴ : عمری که نه در حضور جان خواهد بود |
67 |
|
شمارهٔ ۲۵ : گر یک سرِ موی سرِّ جانان بینی |
80 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گر مرد رهی، روی به فریادرس آر |
61 |
|
شمارهٔ ۵ : عشقش به کشیدن بلا آید راست |
93 |
|
شمارهٔ ۶ : هر دل که طلب کند چنین یاری را |
71 |
|
شمارهٔ ۲۷ : تا با تو، تویی بود، کجا گیری تو |
70 |
|
شمارهٔ ۱ : جان سوخته سرفکنده میباید بود |
58 |
|
شمارهٔ ۲ : گر جان ببرد عشق توام جان آنست |
90 |
|
شمارهٔ ۳ : تا نفس بود ز سِرِّ جان نتوان گفت |
71 |
|
شمارهٔ ۴ : گفتی که نشان راه چیست ای درویش |
70 |
|
شمارهٔ ۷ : این کار که صد عالم پنهان ارزد |
68 |
|
شمارهٔ ۹ : بهتر ز گشادگی گرفتاری من |
75 |
|
شمارهٔ ۱۰ : امروز منم نه کفر و نه ایمانی |
91 |
|
شمارهٔ ۱۱ : چون در ره دین نیامدی در دستم |
65 |
|
شمارهٔ ۱۲ : نه دین حق و نه دین زردشت مرا |
64 |
|
شمارهٔ ۸ : دل عزت خویش جمله از خواری یافت |
54 |
|
شمارهٔ ۱۳ : چون من مگسم سایهٔ طوبی چکنم |
71 |
|
شمارهٔ ۱۶ : ای تن دل ناموافقت میداند |
64 |
|
شمارهٔ ۱۴ : ای دل نه به کفر ونه به دین خواهی مرد |
75 |
|
شمارهٔ ۱۵ : خود را به محال خود دچار آیی تو |
62 |
|
شمارهٔ ۱۷ : گه در وصف دین یگانهای میجویی |
80 |
|
شمارهٔ ۱۸ : چون کرد شراب شرک و غفلت مستت |
82 |
|
شمارهٔ ۱۹ : تا چند به فکر نفس مشغول شوی |
92 |
|
شمارهٔ ۲۰ : هر دل که تمام از سردردی برخاست |
71 |
|
شمارهٔ ۲۴ : ای دل اگر از کار دگرگون آیی |
73 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گر خاصه نیی تو، عام میباید بود |
57 |
|
شمارهٔ ۲۲ : ای در رهِ دین و کارِ کفر آمده سُست |
110 |
|
شمارهٔ ۲۳ : هر چند که رنج بیشتر خواهی برد |
55 |
|
شمارهٔ ۲۵ : امروز چو جمله عمر ضایع کردی |
59 |
|
شمارهٔ ۲۶ : نه در ره اقرار، قراری داری |
69 |
|
شمارهٔ ۲۷ : خود را چو زخواب و خور نمیداری باز |
66 |
|
شمارهٔ ۲ : می نرهانی مرا ز من، من چکنم |
108 |
|
شمارهٔ ۲۸ : چون بحر، ز شوق راز جان، میجوشم |
51 |
|
شمارهٔ ۲۹ : چون بحر،دلی هزار جوش است مرا |
64 |
|
شمارهٔ ۱ : آنجا که نه جان رسید ونه تن آنجا |
79 |
|
شمارهٔ ۳ : پیوسته دلم به جانت میخواهد جُست |
80 |
|
شمارهٔ ۴ : چندانکه مرا میل به رفتن بیش است |
84 |
|
شمارهٔ ۵ : راهی به خودم که مینماید آخر |
76 |
|
شمارهٔ ۶ : گر تن گویم به خویشتن مینرود |
106 |
|
شمارهٔ ۸ : از خود نتوان راه معانی کردن |
80 |
|
شمارهٔ ۱۰ : جان محرم درگاه همی باید برد |
62 |
|
شمارهٔ ۱۱ : گر در سفر یگانگی خواهی بود |
58 |
|
شمارهٔ ۷ : تا چند به پای جان و تن خواهم رفت |
70 |
|
شمارهٔ ۹ : خواهی که ز اضطرار و خواری برهی |
79 |
|
شمارهٔ ۱۲ : آن را که ز حق روزفزون آید کار |
77 |
|
شمارهٔ ۱۳ : در عشق دلی خراب چتواند کرد |
77 |
|
شمارهٔ ۱۴ : کارتو، نکو، او بتواند کردن |
79 |
|
شمارهٔ ۱۵ : عالم چو زکاف و نون توان آوردن |
95 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گر دوزخی و اگر بهشتی امروز |
59 |
|
شمارهٔ ۱۶ : ای دوست ز اندوه دل ریش چه سود |
69 |
|
شمارهٔ ۱۷ : تقدیر چو سابق است تعلیم چه سود |
89 |
|
شمارهٔ ۱۸ : از کارِ قضا در تب و در تفت چه سود |
57 |
|
شمارهٔ ۲۲ : گر مردِ حقی مخالف باطل باش |
45 |
|
شمارهٔ ۲۵ : نفست چه کند چو بند نگشایندش |
55 |
|
شمارهٔ ۲۷ : جانی اگر از حق خبری میداری |
57 |
|
شمارهٔ ۲۰ : دی حکم حیات با اجل راندهاند |
61 |
|
شمارهٔ ۲۱ : هر دل که زحکم رفته فرسوده شود |
45 |
|
شمارهٔ ۲۳ : تا رخت وجودت به عدم در نکشند |
64 |
|
شمارهٔ ۲۴ : آنجا که قرار کار عالم دادند |
77 |
|
شمارهٔ ۲۶ : از هستی خود دمِ تولاّ چه زنیم |
72 |
|
شمارهٔ ۳۰ : تا چند روی بیهده از هر سویی |
59 |
|
شمارهٔ ۳۱ : بی حکم تو هیچ کار نتواند بود |
47 |
|
شمارهٔ ۳ : چون مرگ در افکند به غرقاب ترا |
79 |
|
شمارهٔ ۲۸ : آنها که به علم و عقل در پیشانند |
89 |
|
شمارهٔ ۲۹ : تا چند کنم گناه در گردن خویش |
91 |
|
شمارهٔ ۳۲ : ترسم که چو بیش ازین جهانت ندهند |
58 |
|
شمارهٔ ۱ : دنیا که برای ره گذر باید داشت |
88 |
|
شمارهٔ ۲ : گر مرد رهی،رَخْت به دریا انداز |
49 |
|
شمارهٔ ۶ : عمری به هوس گذاشتی خیز و برو |
88 |
|
شمارهٔ ۱۰ : تو بیخبری و تا خبر خواهد بود |
84 |
|
شمارهٔ ۴ : چون هرچه بود اندک و بسیار نبود |
60 |
|
شمارهٔ ۵ : دیدی تو که محنت زده و شاد بمرد |
57 |
|
شمارهٔ ۷ : دانی تو که هر که زادناچار بمرد |
50 |
|
شمارهٔ ۸ : چون قاعدهٔ بقای ما عین فناست |
52 |
|
شمارهٔ ۹ : کارت همه چون که خوردن و خفتن بود |
50 |
|
شمارهٔ ۱۵ : ای دل صفت نفس بد اندیش مگیر |
56 |
|
شمارهٔ ۱۶ : چون بسیارست ضعف در ایمانت |
61 |
|
شمارهٔ ۱۱ : چون مردن تو چارهٔ یکبارگی است |
75 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چون پنداری در بُنهٔ ما افتاد |
89 |
|
شمارهٔ ۱۳ : بر لوحِ دلت نقشِ دو عالم رقم است |
65 |
|
شمارهٔ ۱۴ : گر مرد رهی، حدیث عالم چه کنی |
56 |
|
شمارهٔ ۱۷ : گفتی تو که مرگ چیست ای بینایی |
61 |
|
شمارهٔ ۱۸ : ای جان سبک روح! گران سنگی چیست |
79 |
|
شمارهٔ ۱۹ : در عالم محنت به طرب آمدهیی |
46 |
|
شمارهٔ ۲۱ : بر هر وجهی که بستهٔ اسبابی |
54 |
|
شمارهٔ ۲۲ : تا کی ز غم زیان وسودت آخر |
50 |
|
شمارهٔ ۲۰ : ای آنکه همیشه نفس خشنود کنی |
60 |
|
شمارهٔ ۲۳ : دردا که به درد ناگهان خواهی شد |
57 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون قاعدهٔ وجود پنداشتن است |
68 |
|
شمارهٔ ۲۹ : هر دیده که روی در معانی آورد |
85 |
|
شمارهٔ ۲۵ : دل از طربِ زمانه برداشتنیست |
95 |
|
شمارهٔ ۲۶ : آن چیست مرا از غم و تیمار که نیست |
77 |
|
شمارهٔ ۲۷ : جانی است درین راه خطرناک شده |
57 |
|
شمارهٔ ۲۸ : از عمر، تمام بهره، برداشته گیر |
43 |
|
شمارهٔ ۳۰ : عشاق که قصّهٔ دل افروز کنند |
48 |
|
شمارهٔ ۳۱ : هر روز ز دل بر سرِ آتش میباش |
69 |
|
شمارهٔ ۳۲ : تا چند درِ فتوح جان دربندی |
71 |
|
شمارهٔ ۲ : گاه از سر طاعتی برون آیی تو |
62 |
|
شمارهٔ ۳۳ : هم تن ز وجودِ جان فرو خواهد ماند |
66 |
|
شمارهٔ ۳۴ : گر دیدهوری جمله نکو باید دید |
47 |
|
شمارهٔ ۳۵ : گر عقل تو کامل است کم خور غم خویش |
67 |
|
شمارهٔ ۱ : چون نشنودی ز یک مسافر که چه بود |
74 |
|
شمارهٔ ۴ : آن کس که تمام متّقی خواهد بود |
60 |
|
شمارهٔ ۵ : چندان که ز مرگ میبگویم دل را |
60 |
|
شمارهٔ ۶ : گر تن گویم عظیم سست افتادست |
56 |
|
شمارهٔ ۷ : چون خواهد بود در کمین افتادن |
59 |
|
شمارهٔ ۳ : خون شد همه جانها و جگرها همه ریش |
78 |
|
شمارهٔ ۸ : گر دل بر امید رهنمون بنشیند |
69 |
|
شمارهٔ ۹ : پیوسته چو ابر این دل بیخویش که هست |
61 |
|
شمارهٔ ۱۰ : عمری که ز رفتنش چنین بیخبرم |
46 |
|
شمارهٔ ۱۱ : دیرست که جان خویشتن میسوزم |
57 |
|
شمارهٔ ۱۲ : گاهی ز غم نفس وخرد میگریم |
64 |
|
شمارهٔ ۱۳ : زان میترسم که در بلام اندازند |
48 |
|
شمارهٔ ۱۴ : تن کیست که سرنگون همی باید کرد |
55 |
|
شمارهٔ ۱۵ : گفتم شب و روز از پی این کار شوم |
64 |
|
شمارهٔ ۱۶ : چون نیست طریقی که به مقصود رسم |
77 |
|
شمارهٔ ۱۷ : تا کی باشم گرد جهان در تک و تاز |
69 |
|
شمارهٔ ۱۸ : در هر دو جهان یک تنهای میجویم |
58 |
|
شمارهٔ ۱۹ : جان رفت و ندید محرمی در همه عمر |
52 |
|
شمارهٔ ۲۰ : از مال جهان جز جگری ریشم نیست |
64 |
|
شمارهٔ ۲۱ : اشکم پس و پیش منزلم بگرفتهست |
66 |
|
شمارهٔ ۲۲ : تا کی بینم به هر دمی تیماری |
81 |
|
شمارهٔ ۲۳ : نه از تن خود به هیچ خشنودم من |
64 |
|
شمارهٔ ۲۸ : آن مرغ که بود از می معنی مست |
88 |
|
شمارهٔ ۲۴ : ای تن ز زمانه سر نگون مینشوی |
78 |
|
شمارهٔ ۲۵ : چون نیست سری این غم بیپایان را |
53 |
|
شمارهٔ ۲۶ : چون من بگذشتهام بجان زین دو سرا |
59 |
|
شمارهٔ ۲۷ : امروز منم خسته ازین بحر فضول |
60 |
|
شمارهٔ ۲۹ : جانا چو به نیستی فتادم برهم |
58 |
|
شمارهٔ ۳۰ : گه گم شدهٔ هزار کارم داری |
66 |
|
شمارهٔ ۳۱ : جز غوّاصی هوس ندارم چکنم |
63 |
|
شمارهٔ ۳۴ : دیرست که دور آسمان میگردد |
60 |
|
شمارهٔ ۳۵ : از واقعهٔ روز پسین میترسم |
52 |
|
شمارهٔ ۳۶ : میترسم و بیقیاس میترسم من |
58 |
|
شمارهٔ ۳۲ : چون دل ز طلب در ره جانان استاد |
53 |
|
شمارهٔ ۳۳ : یک ذره چو آن حکم دگرگون نشود |
60 |
|
شمارهٔ ۳۹ : گر هیچ ندیدم من و گر دیدم من |
56 |
|
شمارهٔ ۳۷ : چون پنجه سال خویشتن را کُشتم |
63 |
|
شمارهٔ ۳۸ : چون روی به پنجاه و به شصت آوردیم |
72 |
|
شمارهٔ ۴۰ : دردا که جوانی ز بَرَم دور رسید |
48 |
|
شمارهٔ ۴۱ : شد عقل ز دست و سخت مضطر افتاد |
64 |
|
شمارهٔ ۴۲ : آن رفت که عیشِ این جهانی خوش بود |
69 |
|
شمارهٔ ۴۳ : تا کی به هوس چارهٔ بهبود کنیم |
45 |
|
شمارهٔ ۴۴ : دردا که ز خواب بس دل غافل ما |
48 |
|
شمارهٔ ۴۹ : رفتیم و نبود هیچ کس محرم ما |
61 |
|
شمارهٔ ۴۵ : افسوس که بی فایده فرسوده شدیم |
503 |
|
شمارهٔ ۴۶ : جان را خطرِ روزِ پسین بایددید |
71 |
|
شمارهٔ ۴۷ : تا در بُنِ بحر عشق غرقاب شدیم |
49 |
|
شمارهٔ ۴۸ : دردا که ز دُردی جهان مَست شدیم |
56 |
|
شمارهٔ ۵۰ : ای دل همه را بیازمودیم و شدیم |
74 |
|
شمارهٔ ۵۳ : هرگز ره دین براستی نسپردیم |
80 |
|
شمارهٔ ۵۶ : چون رفتن جان پاک آمد در پیش |
66 |
|
شمارهٔ ۵۸ : هم کار ز دست رفت در بی کاری |
67 |
|
شمارهٔ ۵۱ : گه دستخوشِ زمانه خواهیم شدن |
96 |
|
شمارهٔ ۵۲ : از آز و طمع بیخور و خفتیم همه |
75 |
|
شمارهٔ ۵۴ : کو تن که ز پای در فتادست امروز |
73 |
|
شمارهٔ ۵۵ : از عمر گذشته عبرتی بیش نماند |
64 |
|
شمارهٔ ۵۷ : دل در سر درد شد به درمان نرسید |
55 |
|
شمارهٔ ۶۰ : افسوس که روزگارم از دست بشد |
67 |
|
شمارهٔ ۶۱ : از گلشن دل نصیب من خار رسید |
72 |
|
شمارهٔ ۶۵ : رفتم خط عشق وبندگی نادیده |
55 |
|
شمارهٔ ۶۶ : کارم ز دل گرم و دم سرد گذشت |
72 |
|
شمارهٔ ۵۹ : دردا که دلم را تن بَطّال بکشت |
66 |
|
شمارهٔ ۶۲ : چون لایق گنج نیست ویرانهٔ عمر |
46 |
|
شمارهٔ ۶۳ : امروز منم نشسته نه نیست نه هست |
61 |
|
شمارهٔ ۶۴ : رفتم که بنای عمر نامحکم بود |
65 |
|
شمارهٔ ۶۷ : شد عمر و دل از کرده پشیمان آمد |
58 |
|
شمارهٔ ۷۱ : افسوس که ناچار بمی باید مرد |
53 |
|
شمارهٔ ۷۲ : دل رفت و ز آتش طرب دود ندید |
69 |
|
شمارهٔ ۷۴ : عمری که گذشت زود انگار نبود |
64 |
|
شمارهٔ ۶۸ : آن شد که دلم را غمِ جانانی بود |
41 |
|
شمارهٔ ۶۹ : زین شیوه که ازعمر برآوردم گرد |
61 |
|
شمارهٔ ۷۰ : تن پست شد از درد اگر پست نبود |
42 |
|
شمارهٔ ۷۳ : هان ای دل خسته کاروان میگذرد |
71 |
|
شمارهٔ ۷۵ : بنیاد جهان غرور و سوداست همه |
38 |
|
شمارهٔ ۷۶ : با این دلِ چون قیر چه خواهی کردن |
38 |
|
شمارهٔ ۲ : گیرم که ترا لطف الاهی آمد |
53 |
|
شمارهٔ ۷۷ : میپنداری که بیخبر بتوان زیست |
33 |
|
شمارهٔ ۱ : شیر اجلت چو درکمین خواهد بود |
57 |
|
شمارهٔ ۳ : چون روی تو در هلاک خواهد بودن |
48 |
|
شمارهٔ ۴ : از آتش دل چو دود بر خواهی خاست |
46 |
|
شمارهٔ ۵ : زان پیش که در عینِ هلاکت فکنند |
45 |
|
شمارهٔ ۶ : تا کی به نظارهٔ جهان خواهی زیست |
53 |
|
شمارهٔ ۸ : گر در کوهی مقیم و گر در دشتی |
32 |
|
شمارهٔ ۹ : چون رفتنِ بیقیاس داری در پی |
40 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای آنکه ز نفسِ شوم در آکفتی |
42 |
|
شمارهٔ ۱۴ : بس کس که ز کوچهٔ هوس برنامد |
32 |
|
شمارهٔ ۷ : گاهی به قبولِ خلق خواهی آویخت |
58 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ره بس دور است توشه بردار و برو |
47 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هر رنگ که ممکن است آمیخته گیر |
58 |
|
شمارهٔ ۱۲ : گیرم که جهان به کام دیدی وشدی |
60 |
|
شمارهٔ ۱۵ : قومی که به خاک مرگ سر بازنهند |
52 |
|
شمارهٔ ۱۸ : ماتم زدگان عالم خاک هنوز |
63 |
|
شمارهٔ ۱۹ : دنیا مطلب مباش مغرور ازو |
56 |
|
شمارهٔ ۱۶ : دو چشم ز اشک خیره میباید کرد |
42 |
|
شمارهٔ ۲۰ : خلقند به خاک بیعدد آورده |
58 |
|
شمارهٔ ۲۱ : چون رفت ز جسم جوهر روشن ما |
55 |
|
شمارهٔ ۱۷ : تا چند ز مرگِ خویش غمناک شوی |
48 |
|
شمارهٔ ۲۲ : بس داغ که چرخ بر دلِ ریش کشید |
47 |
|
شمارهٔ ۲۳ : دل کز سرِ عمر سرنگون بر میخاست |
53 |
|
شمارهٔ ۲۴ : زین بحر که در نهاد آمد تا سر |
65 |
|
شمارهٔ ۲۶ : در حبسِ وجود از چه افتادم من |
56 |
|
شمارهٔ ۲۵ : بس خون که دلم اول این کار بریخت |
52 |
|
شمارهٔ ۲۷ : تن از دو جهان بس که حجابی برداشت |
46 |
|
شمارهٔ ۲۸ : خلقی که درین جهان پدیدار شدند |
61 |
|
شمارهٔ ۲۹ : بس عمر عزیز ای دل مسکین که گذشت |
43 |
|
شمارهٔ ۳۰ : دردا که جفای چرخ پیوسته بماند |
33 |
|
شمارهٔ ۳۱ : ای دل دانی که کار دنیا گذریست |
65 |
|
شمارهٔ ۳۳ : اجزاء زمین تن خردمندان است |
47 |
|
شمارهٔ ۳۵ : لاله ز رخی چو ماه میبینم من |
66 |
|
شمارهٔ ۳۷ : دی خاک همی نمود با من تندی |
37 |
|
شمارهٔ ۳۲ : هر ذره که در وادی و در کهساریست |
36 |
|
شمارهٔ ۳۴ : هر خاک که در جهان کسی فرسوده است |
65 |
|
شمارهٔ ۳۶ : پیش از من و تو پیر و جوانی بودست |
42 |
|
شمارهٔ ۳۸ : هر کوزه که بیخود به دهان باز نهم |
61 |
|
شمارهٔ ۳۹ : بر بستر خاک خفتگان میبینم |
125 |
|
شمارهٔ ۱ : آن ماه که از کنار شد بیرونم |
56 |
|
شمارهٔ ۴۰ : هر سبزه و گل که از زمین بیرون رُست |
46 |
|
شمارهٔ ۴۱ : بر فرق تو هر حادثه تیغی دگرست |
33 |
|
شمارهٔ ۴۲ : ای اهل قبور! خاک گشتید و غبار |
50 |
|
شمارهٔ ۴۳ : از مرگ، چو آب روی دلخواهم شد |
47 |
|
شمارهٔ ۲ : ماهی که چو برق کم بقا آمده بود |
47 |
|
شمارهٔ ۳ : کس بر سر جیحون رقمی جوید باز |
67 |
|
شمارهٔ ۴ : پیمانهٔ خاک گشت آن چشمهٔ نوش |
47 |
|
شمارهٔ ۸ : میگریم ازان مهوشم و میگریم |
39 |
|
شمارهٔ ۹ : ای دل بگری بر من مسکین و مپرس |
40 |
|
شمارهٔ ۵ : دردا که گلم میان گلزار بریخت |
39 |
|
شمارهٔ ۶ : ماهی که چو مهر عالم آرای افتاد |
46 |
|
شمارهٔ ۷ : آه از غم آن که زود برگشت و برفت |
41 |
|
شمارهٔ ۱۰ : دی بر سر خاک دلبری با دل ریش |
66 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ای ماه زمین به برج افلاک شدی |
53 |
|
شمارهٔ ۱۲ : ای پشت بداده رفته هم روز نخست |
64 |
|
شمارهٔ ۱۴ : رفتی و مرا خار شکستی در دل |
39 |
|
شمارهٔ ۱۷ : ای نور رخت خاک سیه بگرفته |
43 |
|
شمارهٔ ۱۳ : بر خاک تو چون بنفشهام سر در بر |
52 |
|
شمارهٔ ۱۵ : ای کرده شب باز پسین ماتم خویش |
53 |
|
شمارهٔ ۱۶ : رفتی تو و خون جگریست از تو مرا |
55 |
|
شمارهٔ ۱۸ : چون گریهٔ من ابر بهاری نبود |
54 |
|
شمارهٔ ۲۰ : برخیز که ابر خاک را میشوید |
48 |
|
شمارهٔ ۱۹ : ای محرم من کیست کنون محرم تو |
47 |
|
شمارهٔ ۲۱ : از مرگِ تو هر دمی دگرگون باشم |
52 |
|
شمارهٔ ۲۲ : گل بیرخ گلرنگ تو خاریست مرا |
50 |
|
شمارهٔ ۲۳ : گفتم همه عمر نازنینت بینم |
40 |
|
شمارهٔ ۲۵ : بی روی تو در ماه سیاهی آمد |
49 |
|
شمارهٔ ۲۴ : کو کس که دل از مرگِ تو خون مینکند |
49 |
|
شمارهٔ ۲۶ : ناگاه چو رخ به راه میآوردی |
46 |
|
شمارهٔ ۲۷ : از ناز چه سود چون بسودی آخر |
60 |
|
شمارهٔ ۲۸ : جان را چو ز رفتن تو آگاهی شد |
40 |
|
شمارهٔ ۲۹ : تا خاک تو گشت غم گسارم بی تو |
55 |
|
شمارهٔ ۳۰ : از کفر بتر بی تو غنودن ما را |
59 |
|
شمارهٔ ۳۱ : در خاک ترا وطن نمیدانستم |
73 |
|
شمارهٔ ۳۲ : تا چند کشم ز مرگ تو درد از تو |
44 |
|
شمارهٔ ۳۳ : دردا که بر چون سمنت میریزد |
45 |
|
شمارهٔ ۳۶ : از مرگ تو فاش گشت رازم چکنم |
31 |
|
شمارهٔ ۳۹ : بس زود به مرگ کردی آهنگ آخر |
41 |
|
شمارهٔ ۳۴ : ای آن که به گِل، گُل چمن پوشیدی |
35 |
|
شمارهٔ ۳۵ : در ماتم تو چرخ سیه پوش بماند |
48 |
|
شمارهٔ ۳۷ : ای رفته و ما را به هلاک آورده |
63 |
|
شمارهٔ ۳۸ : از گریهٔ زار ابر، گل تازه و پاک |
56 |
|
شمارهٔ ۴۰ : زین پس ناید ز دیدگانم دیدن |
37 |
|
شمارهٔ ۴۱ : چون مردن تو از پی این زادن بود |
41 |
|
شمارهٔ ۴۵ : جانا رفتم بر دل پاکم بگری |
39 |
|
شمارهٔ ۴۲ : رفتی تو به خاک و یاسمن بی تو رسید |
63 |
|
شمارهٔ ۴۳ : گل خندان شد ز گریهٔ ابر بهار |
43 |
|
شمارهٔ ۴۴ : روزی که ز خاک من برون آید خار |
58 |
|
شمارهٔ ۱ : چون جان دلم ز سیر،چون برق شدند |
43 |
|
شمارهٔ ۲ : در عشق مرا چه کار با پردهٔ راز |
38 |
|
شمارهٔ ۳ : دریای دلم گرچه بسی میآشفت |
56 |
|
شمارهٔ ۴ : خون دل من که هر دم افزون گردد |
50 |
|
شمارهٔ ۷ : گر دل بشناختی که من کیستمی |
46 |
|
شمارهٔ ۵ : شب نیست که خون از دل غمناک نریخت |
56 |
|
شمارهٔ ۹ : هر شب چو غمی ز چشم من خون ریزد |
55 |
|
شمارهٔ ۶ : این شیوه مصیبت که مرا اکنون است |
43 |
|
شمارهٔ ۸ : گر جان گویم جای خرابش بنماند |
43 |
|
شمارهٔ ۱۰ : چون دریائی کنار من از جا خاست |
62 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هر چند که پشت و روی دارم کاری |
53 |
|
شمارهٔ ۱۲ : گفتم ای چشم خواب میباید برد |
46 |
|
شمارهٔ ۱۵ : ای دل ز هوای عشق کیفر میبر |
38 |
|
شمارهٔ ۱۳ : آن دل که نشان غمگساری میجست |
51 |
|
شمارهٔ ۱۴ : ای دل هر دم دست به خون نتوان برد |
49 |
|
شمارهٔ ۱۸ : یک همنفسی کو که برو گریم من |
42 |
|
شمارهٔ ۱۶ : هر سیل که از خون جگر خواهد خاست |
48 |
|
شمارهٔ ۱۷ : خونی که مرا در دل و جان اکنون هست |
58 |
|
شمارهٔ ۲۰ : از شرم رخت سرخی گل میبشود |
48 |
|
شمارهٔ ۲۴ : تا جان دارم حلقِ من و خنجر تو |
44 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گفتم:دل من که خانهٔ جان اینست |
37 |
|
شمارهٔ ۲۱ : ای عشق توأم در تک و تاب افکنده |
59 |
|
شمارهٔ ۲۲ : تا کی ریزم ز چشمِ خون پالا اشک |
42 |
|
شمارهٔ ۲۳ : چون دردِ دلم تو میپسندی بسیار |
48 |
|
شمارهٔ ۲۵ : ای از رخ چون گلت گلابِ دیده |
45 |
|
شمارهٔ ۲۶ : چون چشم به یارِ سیم تن میافتد |
44 |
|
شمارهٔ ۳۱ : بس سیل که خاست هر نفس چشمم را |
49 |
|
شمارهٔ ۲۷ : تن خاک نشین چشم یار آمده گیر |
38 |
|
شمارهٔ ۲۸ : جانا!غم تو با تن چون مویم داشت |
54 |
|
شمارهٔ ۲۹ : چون شمع، ز بس سوز، خور و خوابم شد |
44 |
|
شمارهٔ ۳۰ : تا کی ز تو روی بر زمین باید داشت |
46 |
|
شمارهٔ ۳۲ : زان روی که در روی تو چشمم نگریست |
38 |
|
شمارهٔ ۳۵ : روزی که دل شکسته پیش تو کشم |
45 |
|
شمارهٔ ۳۶ : با دل گفتم بسی زیان میبینم |
30 |
|
شمارهٔ ۳۷ : از گریهٔ خود بسی نکویی دارم |
45 |
|
شمارهٔ ۳۳ : آن ماه، مرا چو خاک در کوی افکند |
65 |
|
شمارهٔ ۳۴ : چون ایندل غم کشم وطن در خون دید |
42 |
|
شمارهٔ ۳۸ : شبرنگ خطت که رام افسونم بود |
32 |
|
شمارهٔ ۳۹ : از رشک تو، کاغذین کنم پیراهن |
70 |
|
شمارهٔ ۴۰ : چون هر مویم نوحه گر آید بی تو |
50 |
|
شمارهٔ ۴۳ : گر دل نه چنین عاشق شیدا بودی |
61 |
|
شمارهٔ ۴۱ : دل را که شد از یک نظر دیده خراب |
36 |
|
شمارهٔ ۴۶ : گرچه غمم از گریستن بیرونست |
46 |
|
شمارهٔ ۴۲ : اول دل من، عشق رخت در جان داشت |
42 |
|
شمارهٔ ۴۴ : خونی که من از دیده به در میریزم |
57 |
|
شمارهٔ ۴۵ : آن دل که دمی بی تو سر جانش نبود |
64 |
|
شمارهٔ ۴۷ : چون با غم تو دل مرا تاب نماند |
36 |
|
شمارهٔ ۱ : دردا که دلم بوی دوایی نشنود |
47 |
|
شمارهٔ ۲ : گردل گویم به منتهایی نرسید |
51 |
|
شمارهٔ ۳ : هر چیز تو را همی جمالی دگر است |
43 |
|
شمارهٔ ۴ : این بادیهٔ تو را سری پیدا نه |
60 |
|
شمارهٔ ۵ : عشق تو که ذرّه ذرّه تابنده بدوست |
39 |
|
شمارهٔ ۶ : دردا که دلم سایهٔ اقبال ندید |
46 |
|
شمارهٔ ۷ : جانم چو ز کنهِ کار آگاه نبود |
46 |
|
شمارهٔ ۸ : تا خرقهٔ سروری ز سر بفکندیم |
35 |
|
شمارهٔ ۱۰ : عمری به هوس نخل معانی بستم |
34 |
|
شمارهٔ ۹ : چون دیده سپید شد نظر چند کنیم |
54 |
|
شمارهٔ ۱۱ : عمری بدویدم از سر بیخبری |
35 |
|
شمارهٔ ۱۲ : گر من فلکم به مرتبت ور ملخم |
72 |
|
شمارهٔ ۱۳ : از حادثهٔ آب و گلم هیچ آمد |
40 |
|
شمارهٔ ۱۴ : آن دل که سراسیمهٔ عالم بودی |
36 |
|
شمارهٔ ۱۷ : زین پیش دلم بستهٔ پندار آمد |
39 |
|
شمارهٔ ۱۹ : در آرزوی چشمهٔ حیوان مردم |
61 |
|
شمارهٔ ۱۵ : گر قصد فلک کنم به پیشان نرسم |
60 |
|
شمارهٔ ۱۶ : در حیرت و سودا چه توانم کردن |
76 |
|
شمارهٔ ۱۸ : آن سالکِ گرمرو که نامش جان است |
67 |
|
شمارهٔ ۲۰ : چندان که دل من به سفر بیش دَرَست |
56 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گاهی به کمال برتر از خورشیدم |
56 |
|
شمارهٔ ۲۵ : جانان آمد قصد دل و جانم کرد |
39 |
|
شمارهٔ ۲۲ : ای دل غم جان محنت اندیش ببین |
37 |
|
شمارهٔ ۲۳ : که گفت ترا که راه اندوهش گیر |
41 |
|
شمارهٔ ۲۴ : دردا که دلم به هیچ درمان نرسید |
44 |
|
شمارهٔ ۲۶ : هر لحظه می یی به جان سرمست دهد |
45 |
|
شمارهٔ ۲۷ : ای دل! تو چو مردان به رهِ پرخطری |
53 |
|
شمارهٔ ۲۸ : هر چند که این حدیث جستی تو بسی |
50 |
|
شمارهٔ ۳۰ : چون هر نفسی ز درد مهجورتری |
81 |
|
شمارهٔ ۳۱ : دل در ره او تصرّف خویش ندید |
42 |
|
شمارهٔ ۳۵ : ای دل بندی بس استوارت افتاد |
41 |
|
شمارهٔ ۲۹ : جانی که به راه رهنمون دارد رای |
50 |
|
شمارهٔ ۳۶ : هر روز به عالمی دگرگون برسی |
41 |
|
شمارهٔ ۳۲ : در بادیهای که عقل را راهی نیست |
47 |
|
شمارهٔ ۳۳ : ای دل! دانی که او سزاوار تو نیست |
59 |
|
شمارهٔ ۳۴ : گر در همه عمر در سفر خواهی بود |
37 |
|
شمارهٔ ۳۸ : گاه از مویی مشوشت باید شد |
34 |
|
شمارهٔ ۴۲ : در عالم خوف روزگاری دارم |
50 |
|
شمارهٔ ۳۷ : هر چند که اهل راز میباید گشت |
48 |
|
شمارهٔ ۳۹ : جانا زغمت بسوختی جان، ما را |
34 |
|
شمارهٔ ۴۰ : گر جان گویم برآمد و حیران شد |
53 |
|
شمارهٔ ۴۳ : گر شادی تو معتبرم میآید |
35 |
|
شمارهٔ ۴۴ : تا زلف تو چون کمند میبینم من |
35 |
|
شمارهٔ ۴۱ : اینجا که منم، پردهٔ پندار بسی است |
47 |
|
شمارهٔ ۴ : بر دل گرهی بستم و بر جان باری |
39 |
|
شمارهٔ ۴۵ : ای گم شده از جای به صد جای پدید |
54 |
|
شمارهٔ ۱ : تیرِ طلبِ عشق، روان، میانداز |
45 |
|
شمارهٔ ۲ : تا دولت برگشته چه خواهد کردن |
42 |
|
شمارهٔ ۳ : تا کی باشم گِردِ جهان در تک و تاز |
47 |
|
شمارهٔ ۵ : هر چند نیم در ره او بر کاری |
59 |
|
شمارهٔ ۶ : در اصل چو مقبول ونه مهمل بودم |
63 |
|
شمارهٔ ۷ : گر دست دهد به زندگانم مردن |
66 |
|
شمارهٔ ۹ : جانا! نظری در دل درویشم کن |
81 |
|
شمارهٔ ۱۰ : عمریست که شرح حال تو میگویم |
73 |
|
شمارهٔ ۸ : گفتم که اگرچه هست کارم بنظام |
38 |
|
شمارهٔ ۱۱ : جانا! نه نکو نه نانکو آمدهام |
41 |
|
شمارهٔ ۱۲ : نی از سر زلفت خبری میرسدم |
48 |
|
شمارهٔ ۱۳ : روزی که ز خود شوی توناچیز آخر |
41 |
|
شمارهٔ ۱۴ : از عشق تو در جگر ندارم آبی |
36 |
|
شمارهٔ ۱۵ : گر تو سر موئی سر من داشتیی |
54 |
|
شمارهٔ ۱۶ : عشق تو که همچو آتشم میآید |
33 |
|
شمارهٔ ۱۸ : تا کی بی تو زاری پیوست کنم |
55 |
|
شمارهٔ ۲ : جز تشنگی تو هوسم مینکند |
42 |
|
شمارهٔ ۱۷ : عاشق به غم تو کار افتاده خوش است |
47 |
|
شمارهٔ ۱ : جانی دارم عاشق و شوریده و مست |
41 |
|
شمارهٔ ۳ : نه دل دارم نه چشم ره بین چکنم |
50 |
|
شمارهٔ ۴ : امروز منم وصل به هجران داده |
38 |
|
شمارهٔ ۵ : جسمی است هزار چشمه خون زاده درو |
69 |
|
شمارهٔ ۶ : چون کس بنداند آنچه من دانم ازو |
35 |
|
شمارهٔ ۸ : چون مرغ دلم به دام هستی در شد |
61 |
|
شمارهٔ ۹ : نه بستهٔ پیوند توانم بودن |
34 |
|
شمارهٔ ۷ : من این دل بسته را کجا خواهم برد |
56 |
|
شمارهٔ ۱۱ : جان تشنگی همه جهان میآرد |
34 |
|
شمارهٔ ۱۴ : در پرده درونِ دل ریشت بینم |
37 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ما هر ساعت ذخیرهٔ جان بنهیم |
38 |
|
شمارهٔ ۱۲ : جانا! جانی عاشق روی تو مراست |
39 |
|
شمارهٔ ۱۳ : در هر دو جهان گر آرزویی جویم |
39 |
|
شمارهٔ ۱۵ : از چشم خوشت بسی شکایت دارم |
83 |
|
شمارهٔ ۱۶ : جانا! مددی به عمر کوتاهم ده |
38 |
|
شمارهٔ ۱۷ : تن زیر امانت تو خاکِ در شد |
36 |
|
شمارهٔ ۲۳ : کو پای که از دست تو بگریختمی |
81 |
|
شمارهٔ ۱۸ : بی چهرهٔ تو در نظری نتوان دید |
52 |
|
شمارهٔ ۱۹ : هم بادیهٔ عشق تو بی پایان است |
45 |
|
شمارهٔ ۲۰ : در عشق تو دل زیر و زبر باید برد |
60 |
|
شمارهٔ ۲۱ : جان پیش تو بر میان کمر خواهم داشت |
42 |
|
شمارهٔ ۲۲ : گر دیده به تو راه توانستی کرد |
51 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون درد ترا من به دعا میطلبم |
36 |
|
شمارهٔ ۲۵ : یا در پیشم چو شمع بنشان و بکش |
65 |
|
شمارهٔ ۳۲ : گه پیش در تو در سجود آمدهام |
42 |
|
شمارهٔ ۳۳ : کو کوی تو تا به فرق بشتافتمی |
43 |
|
شمارهٔ ۲۶ : از خود خبرم ده که ز خود بیخبرم |
51 |
|
شمارهٔ ۲۷ : خورشید رخ تو در نظر خواهم داشت |
78 |
|
شمارهٔ ۲۸ : چون من به تو در همه جهانم زنده |
52 |
|
شمارهٔ ۲۹ : جان رسته ازین قالب صد لون به است |
69 |
|
شمارهٔ ۳۰ : چون دل غم تو به جان توانست کشید |
50 |
|
شمارهٔ ۳۱ : در عشق تو از بس که جنون آرم من |
56 |
|
شمارهٔ ۳۴ : جانا چو نه پنهان و نه پیدا باشی |
66 |
|
شمارهٔ ۳۶ : در بند نیم ز هیچ کس میدانی |
51 |
|
شمارهٔ ۴۱ : قومی که به هم میبنشینند ترا |
44 |
|
شمارهٔ ۳۵ : نه غیر تو را با تو اثر میبینم |
58 |
|
شمارهٔ ۳۷ : چون راه تو را هیچ سر و پایان نیست |
46 |
|
شمارهٔ ۳۸ : گر دل خواهی بیا و بپذیر و بگیر |
56 |
|
شمارهٔ ۳۹ : تا جاندارم گردِ تو میخواهم تاخت |
41 |
|
شمارهٔ ۴۰ : ما نقطهٔ جان وقف بلای تو کنیم |
35 |
|
شمارهٔ ۴۲ : چون نعره زنان قصد به کوی تو کنیم |
60 |
|
شمارهٔ ۴۳ : عاشق که همه جهان به روی تو بداد |
57 |
|
شمارهٔ ۴۹ : گفتم به بر سوختهٔ خویش آیی |
48 |
|
شمارهٔ ۴۴ : با عشق تو ملک جاودان میچکنم |
34 |
|
شمارهٔ ۴۵ : شوقی که مرا در طلب روی تو خاست |
75 |
|
شمارهٔ ۴۶ : از عشق تو روی بر زمینم بنشین |
36 |
|
شمارهٔ ۴۷ : نادیده ترا دیدهٔ من دل برخاست |
45 |
|
شمارهٔ ۴۸ : ای تیرگی زلف توام دین افروز |
68 |
|
شمارهٔ ۵۰ : ای لعل توام به حکم ایمان داده |
54 |
|
شمارهٔ ۵۱ : آن غم که ز تو بر دل پرخون منست |
51 |
|
شمارهٔ ۵۲ : در عشق تو نیم ذرّه سرگردانی |
59 |
|
شمارهٔ ۵۴ : تا بتوانم ازان جمال اندیشم |
43 |
|
شمارهٔ ۵۷ : جانا ز ره دراز میآیم من |
41 |
|
شمارهٔ ۵۳ : در عشق تو عقل با جنون خواهم کرد |
47 |
|
شمارهٔ ۵۵ : بی روی تو یک لحظه نمیشاید زیست |
46 |
|
شمارهٔ ۵۶ : ای بس که به هر تکی دویدم بی تو |
40 |
|
شمارهٔ ۵۸ : در عشق تو کارم به هوس برناید |
46 |
|
شمارهٔ ۵۹ : با عشق تو دست در کمر خواهم کرد |
50 |
|
شمارهٔ ۶۰ : گه نعره زن قلندرت خواهم بود |
44 |
|
شمارهٔ ۶۱ : چون عاشق روی تو شدم اینم بس |
50 |
|
شمارهٔ ۶۷ : تا یک نفسی دسترسم میماند |
51 |
|
شمارهٔ ۶۲ : عمری دل من غرقهٔ خون بی تو بزیست |
40 |
|
شمارهٔ ۶۳ : چون هست همه به روی تو آرزویم |
49 |
|
شمارهٔ ۶۴ : از عشقِ تو در جهان عَلَم خواهم شد |
39 |
|
شمارهٔ ۶۵ : در کوی تو چون میگذرم، اینت عجب! |
51 |
|
شمارهٔ ۶۶ : چندان که ترا حجاب میخواهد بود |
41 |
|
شمارهٔ ۶۸ : با روی تو ماه را منوّر ننهم |
31 |
|
شمارهٔ ۱ : از بس که امید و بیم میبینم من |
49 |
|
شمارهٔ ۵ : گفتم: چه کنم ز پای در میآیم |
63 |
|
شمارهٔ ۶ : گفتم: دل و جان در سر کارت کردم |
62 |
|
شمارهٔ ۶۹ : دیرست که در کوی تو دارم گذری |
41 |
|
شمارهٔ ۷۰ : ما درد تو را به جای درمان داریم |
47 |
|
شمارهٔ ۲ : اول بنگر به جانِ چون برقِ همه |
37 |
|
شمارهٔ ۳ : گفتم:چه شود چو لطف ذاتی داری |
52 |
|
شمارهٔ ۴ : گفتم:به غمم قیام کی بود ترا |
33 |
|
شمارهٔ ۷ : گفتم: چو تو بردی سبق اندر خوبی |
54 |
|
شمارهٔ ۸ : چون یار نمیکند همی یاد از من |
48 |
|
شمارهٔ ۹ : تشنه بکشد مرا و آبم ندهد |
51 |
|
شمارهٔ ۱۲ : با کس بنسازی همه بی کس باشی |
53 |
|
شمارهٔ ۱۴ : گر روشنی جمال خودب نمائی |
41 |
|
شمارهٔ ۱۰ : چون هیچ کسی ندیدهام در خوردش |
36 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هان ای دل چونی به چه پشتی ما را |
60 |
|
شمارهٔ ۱۳ : سرگشتهٔ روز و شبم آنجا که منم |
77 |
|
شمارهٔ ۱۵ : یک روز به صلح کارسازی میکن |
60 |
|
شمارهٔ ۱۸ : هر چند نیم به هیچ رو محرم تو |
53 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گفتم که درین غمم بنگذاری تو |
86 |
|
شمارهٔ ۲۱ : محجوبم و از حجاب من آزادی |
97 |
|
شمارهٔ ۱۶ : نه چارهٔ این عاشق بیچاره کنی |
39 |
|
شمارهٔ ۱۷ : جان در غمت از خانه به کوی افتادهست |
38 |
|
شمارهٔ ۲۰ : گفتم: شب و روز از تو چرا میسوزم |
49 |
|
شمارهٔ ۲۲ : چون باد ز من میگذری چه تْوان کرد |
56 |
|
شمارهٔ ۲۳ : بی پیش و پسی تو و پس و پیش تراست |
52 |
|
شمارهٔ ۲۶ : هر روز ز نو پردهٔ دیگر سازی |
52 |
|
شمارهٔ ۲۹ : ای خون شده در غمت دل پاک همه |
64 |
|
شمارهٔ ۲۴ : در عشق تو سوختم چه میسازی تو |
46 |
|
شمارهٔ ۲۵ : تاکی باشم چو حلقه بر در بی تو |
77 |
|
شمارهٔ ۲۷ : ای آمده از شوق تو جان بر لب من |
38 |
|
شمارهٔ ۲۸ : گر در سخنم باتو سخن را چه کنی |
53 |
|
شمارهٔ ۳۰ : اندهگن توییم از دیری گاه |
48 |
|
شمارهٔ ۳۱ : چون هر روزیت بیشتر دیدم ناز |
66 |
|
شمارهٔ ۲ : کس از می معرفت ندادست نشان |
64 |
|
شمارهٔ ۴ : دل سوختگان که نفس میفرسایند |
60 |
|
شمارهٔ ۱ : چندین در بسته بی کلیدست چه سود |
71 |
|
شمارهٔ ۳ : چون نیست رهی به هیچ سوئی کس را |
70 |
|
شمارهٔ ۵ : آنها که به عشق گوی بردند همه |
50 |
|
شمارهٔ ۶ : عقلی که کمال در جنون میبیند |
53 |
|
شمارهٔ ۷ : دل با غمِ عشق پای ناوُرد آخر |
44 |
|
شمارهٔ ۸ : گاهی ز سلوک عقل چون نسناسیم |
46 |
|
شمارهٔ ۹ : دستی که برین شاخ برومند رسد |
39 |
|
شمارهٔ ۱۰ : عاشق تن خود با غم پیوست دهد |
61 |
|
شمارهٔ ۱۱ : هر دل که ز ذوق آن حقیقت جان یافت |
81 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چون کس نرسد به وصل دلخواه ای دل! |
61 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای دل ز پی دلیل نتوانی شد |
42 |
|
شمارهٔ ۱۴ : اندر طلب حضرت جاوید آخر |
54 |
|
شمارهٔ ۱۵ : دل گم شد و در ره الاهی اِستاد |
48 |
|
شمارهٔ ۱۶ : نه هیچ کسی به زندگانیش گرفت |
44 |
|
شمارهٔ ۱۷ : آن ذوق که در شکر چشیدن باشد |
69 |
|
شمارهٔ ۲۱ : هم هر ساعت در ره تاریکتری |
40 |
|
شمارهٔ ۲۳ : ذرات جهان در اشتیاقند همه |
47 |
|
شمارهٔ ۲۴ : ای کاش ترا دیدهٔ دیدن بودی |
60 |
|
شمارهٔ ۱۸ : ای مانده به زیرِ پرده! او کی باشی |
37 |
|
شمارهٔ ۱۹ : چو مهرهٔ مِهر بازی ای سرو سهی |
53 |
|
شمارهٔ ۲۰ : گر بندِ امیدِ وصلِ او بست ترا |
61 |
|
شمارهٔ ۲۲ : گر گنج به تو رسید پنهان میدار |
49 |
|
شمارهٔ ۲۵ : تا جان دارم همچو فلک میپویم |
67 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گر بشتابم نه روی بشتافتن است |
47 |
|
شمارهٔ ۲۹ : تا چند غم این ره پر بیم کشیم |
76 |
|
شمارهٔ ۳۰ : چون یار نمیکند دمی همدمیم |
41 |
|
شمارهٔ ۳۱ : من عاشقِ زارِ روی یارم چکنم |
43 |
|
شمارهٔ ۲۷ : دردا که ز بی نشان نشانم نرسید |
34 |
|
شمارهٔ ۲۸ : نه دل دارم نه جان نه تن چتوان کرد |
44 |
|
شمارهٔ ۳۲ : هر جان که فدای روی اونتوان کرد |
36 |
|
شمارهٔ ۳۳ : دل تحفهٔ دلنواز نتوان آورد |
46 |
|
شمارهٔ ۳۴ : گنجت باید به رنج خو باید کرد |
47 |
|
شمارهٔ ۳۵ : دل در طلبش بجان گرفتار آمد |
40 |
|
شمارهٔ ۳۹ : همچون شمعی چند گدازم چکنم |
44 |
|
شمارهٔ ۳۶ : چون نیست دلم را جز ازو دلجویی |
44 |
|
شمارهٔ ۳۷ : کو کس که چو بوده گشت نابوده نشد |
51 |
|
شمارهٔ ۳۸ : ای دل چو حجاب و پرده در کار بسی است |
63 |
|
شمارهٔ ۴۲ : ای دل به امید هم نفس چند روی |
49 |
|
شمارهٔ ۴۳ : چون وصل نیامد به کسی اولیتر |
61 |
|
شمارهٔ ۴۰ : درداکه قرار از دل سرمستم رفت |
53 |
|
شمارهٔ ۴۱ : گفتم: جانا هیچ کسی جانان یافت |
44 |
|
شمارهٔ ۴۴ : این گنبد خاکستری پر اخگر |
60 |
|
شمارهٔ ۴۵ : ای بس که ز شوق چرخ دوّار بگشت |
43 |
|
شمارهٔ ۵۱ : گر در طلبت ز روی تو مانم باز |
49 |
|
شمارهٔ ۴۶ : هم عقل طلسم جسم و جان باز نیافت |
43 |
|
شمارهٔ ۴۷ : جانا رخ چون تویی به حس نتوان دید |
55 |
|
شمارهٔ ۴۸ : چون باد همی نیاید از سوی تو بر |
45 |
|
شمارهٔ ۴۹ : جان نتواند هیچ سزاوار تو گشت |
42 |
|
شمارهٔ ۵۰ : آواز به عشق در جهان خواهم داد |
36 |
|
شمارهٔ ۵۲ : هر کو گهر وصل تو در خواهد خواست |
45 |
|
شمارهٔ ۵۳ : هرگه که من از وصل تو بابی شنوم |
42 |
|
شمارهٔ ۵۴ : چون وصل تو یک ذرّه نیفتاد به دست |
28 |
|
شمارهٔ ۵۵ : ای کاش دلم را سر آهی بودی |
61 |
|
شمارهٔ ۵۸ : حاصل ز غم عشق توام بدنامیست |
46 |
|
شمارهٔ ۶۰ : گاهی ببریدی و گهی پیوستی |
80 |
|
شمارهٔ ۶۱ : من بی دلم و اگر مرا دل بودی |
35 |
|
شمارهٔ ۵۶ : این خود چه عجایبست کامیختهای |
51 |
|
شمارهٔ ۵۷ : آنها که ز باغ عشق گل میرُفتند |
50 |
|
شمارهٔ ۵۹ : نادیده ترا شرح سروپات خوش است |
49 |
|
شمارهٔ ۶۲ : تا پاک نگردد دل این نفس پرست |
69 |
|
شمارهٔ ۶۳ : هر دم ز تو درد بیشتر خواهم برد |
57 |
|
شمارهٔ ۶۴ : در عشق تو با خاک یکی خواهم شد |
45 |
|
شمارهٔ ۶۵ : جان بوی تو جست ازدل ناشاد و نیافت |
70 |
|
شمارهٔ ۶۶ : زان روز که حسنت علم عشق افراخت |
40 |
|
شمارهٔ ۶۷ : چون گل یابم بوی تو زو میبویم |
53 |
|
شمارهٔ ۶۸ : ای جمله اشارات و رموزم از تو |
54 |
|
شمارهٔ ۶۹ : هرچند که نیست در رهت دولت یافت |
39 |
|
شمارهٔ ۷۰ : در عشق تودل هزار جان تاوان داد |
46 |
|
شمارهٔ ۷۲ : اول ز همه کار جهان پاک شدم |
47 |
|
شمارهٔ ۷۳ : مینشناسد کسی زبان من و تو |
55 |
|
شمارهٔ ۷۴ : یکتا بودم دوتائی افتاد مرا |
46 |
|
شمارهٔ ۷۷ : تا بی رخ یار محرمم بنشسته |
44 |
|
شمارهٔ ۷۱ : چون نیست ره هجرِ ترا پایان باز |
71 |
|
شمارهٔ ۷۵ : چون وصل تو تخم آشنائی انداخت |
51 |
|
شمارهٔ ۷۶ : هم عمر به بوی تو به آخر بردیم |
49 |
|
شمارهٔ ۷۸ : گه قصد دل ممتحنم میداری |
65 |
|
شمارهٔ ۱ : نه همچو منت به مهر یاری خیزد |
59 |
|
شمارهٔ ۲ : چون من به خلاف تو نکردم کاری |
54 |
|
شمارهٔ ۳ : گر با غم تو مرا شماری نبود |
63 |
|
شمارهٔ ۴ : ای گشته دلم بی تو چو آتشگاهی |
70 |
|
شمارهٔ ۵ : از دل گرمی که در هوای تو مراست |
54 |
|
شمارهٔ ۷ : گر هیچ نظر کنی به روی ما کن |
49 |
|
شمارهٔ ۶ : عشق تو که همچو شمع میسوخت مرا |
77 |
|
شمارهٔ ۸ : تا جان دارم سر وفا دارم من |
51 |
|
شمارهٔ ۹ : تاکی نفسی از سر صد درد زدن |
53 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ناکرده به پرِّ پشهای دمسازی |
46 |
|
شمارهٔ ۱۱ : خون ناخوردن به از وبالست ترا |
40 |
|
شمارهٔ ۱۲ : شب نیست که دل حزین ندارم از تو |
48 |
|
شمارهٔ ۱۴ : تا کی رانی از در خود دربدرم |
42 |
|
شمارهٔ ۱۸ : دیوانه شدم زلف تو زنجیر کنم |
83 |
|
شمارهٔ ۱۳ : در کوی تو جان گوشه نشین میدانم |
70 |
|
شمارهٔ ۱۵ : چون دل ز غم عشق تو یک ره جان برد |
43 |
|
شمارهٔ ۱۶ : در عشق تو من گرد جنون میگردم |
87 |
|
شمارهٔ ۱۷ : گه درد توام ز پرده آرد بیرون |
44 |
|
شمارهٔ ۱۹ : امروز چنین بر سر غوغای توام |
44 |
|
شمارهٔ ۲۰ : جانا ره بدخویی ناساز مگیر |
44 |
|
شمارهٔ ۲۱ : جانا بگذر به کوی ما یک باری |
44 |
|
شمارهٔ ۲۴ : بس طیره بماندم ز طنّازی تو |
46 |
|
شمارهٔ ۲۵ : تا چند من سوخته را رنجانی |
42 |
|
شمارهٔ ۲۲ : دل بِهْ ز تو دمساز نیابد هرگز |
49 |
|
شمارهٔ ۲۳ : گر جان گویم هست پس پردهٔ تست |
59 |
|
شمارهٔ ۲۶ : نه مرهم خون خوارهٔ خود خواهی کرد |
39 |
|
شمارهٔ ۲۷ : هر کاو نه به جان کناره جوید از تو |
44 |
|
شمارهٔ ۲۹ : در ششدرهٔ غمم بمگداز آخر |
52 |
|
شمارهٔ ۳۰ : هر لحظه همی بیشترم میسوزی |
43 |
|
شمارهٔ ۲۸ : از آهِ درون کام و زبانم بمسوز |
65 |
|
شمارهٔ ۳۱ : تا در دل من آتش عشقِ تو فروخت |
47 |
|
شمارهٔ ۳۲ : تا کی دل و جان دردمندم سوزی |
47 |
|
شمارهٔ ۳۴ : هم رهبر این عاشق گمراهی تو |
50 |
|
شمارهٔ ۳۵ : گر بی تو دمی خون جگر مینخورم |
44 |
|
شمارهٔ ۳۳ : من با تو بدی نکردم ای بینایی |
58 |
|
شمارهٔ ۳۶ : گه راندهٔ دربدرم میداری |
65 |
|
شمارهٔ ۳۷ : گاهی به بر خویشتنم میخوانی |
46 |
|
شمارهٔ ۳۸ : ای عشقِ تو کیمیای سرگردانی |
44 |
|
شمارهٔ ۳۹ : هر لحظه به سوی من شبیخون آری |
39 |
|
شمارهٔ ۴۰ : گه با من دلخسته کنی دمسازی |
53 |
|
شمارهٔ ۴۱ : ای هر نفست عزم جگرخواری بیش |
43 |
|
شمارهٔ ۴۲ : گه حملهٔ عشق بر دل مجنون آر |
32 |
|
شمارهٔ ۴۴ : ای در غم عشق تو رهی نیست شده |
55 |
|
شمارهٔ ۴۵ : عشق تو که سر چون قلمم اندازد |
57 |
|
شمارهٔ ۴۳ : در راه فکندهای مرا در تک و تاز |
75 |
|
شمارهٔ ۴۶ : صد بار کشیدم و به سرباری بار |
39 |
|
شمارهٔ ۴۷ : آن را که ز دریای تو گوهر بایست |
50 |
|
شمارهٔ ۴۸ : در عشق تو ای خلاصهٔ زیبایی |
39 |
|
شمارهٔ ۴۹ : از عشق فرو گرفتهای پیش و پسم |
42 |
|
شمارهٔ ۵۰ : شرطست ز تو بی سر و بی پا که روم |
76 |
|
شمارهٔ ۵۵ : گه نعره زن قلندر آیم با تو |
44 |
|
شمارهٔ ۵۱ : گه عشق تو چون حلقهٔ در میبَرَدم |
54 |
|
شمارهٔ ۵۲ : سودای توام به سر برون گردانید |
54 |
|
شمارهٔ ۵۳ : سودای تو کارم به خطر خواهد کرد |
46 |
|
شمارهٔ ۵۴ : عشق تو به هر دمم هزار افسون کرد |
39 |
|
شمارهٔ ۵۶ : گاهی به خودم بار دهد مستی مست |
46 |
|
شمارهٔ ۵۷ : زان بگرفته است لشکری پیش و پسم |
59 |
|
شمارهٔ ۵۸ : چون داد دلم دل گسلم میندهد |
65 |
|
شمارهٔ ۱ : خورشید رخت ملک جهان میبخشد |
104 |
|
شمارهٔ ۲ : ای هر نفسی جلوهگری افزونت |
59 |
|
شمارهٔ ۴ : گاهی به سخن قوت روانم بخشی |
34 |
|
شمارهٔ ۵۹ : جان میسوزد هر نفسم تا کی ازین |
37 |
|
شمارهٔ ۶۰ : چه عشوه و دم بود که دلدارنداد |
54 |
|
شمارهٔ ۶۱ : هم دیده بر آن روی چو مه باید داشت |
42 |
|
شمارهٔ ۳ : از بس که شکر فشاند عشق تونخست |
48 |
|
شمارهٔ ۵ : ای خوش دلی هر دو جهانم غم تو |
110 |
|
شمارهٔ ۶ : در هر چیزی که بود دل بستگیم |
37 |
|
شمارهٔ ۷ : یک ذرّه ز عشق تو به صحرا آمد |
51 |
|
شمارهٔ ۸ : در هر چیزی ترا جمالی دگرست |
45 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ای یاد تو آب زندگانی جان را |
54 |
|
شمارهٔ ۹ : سرگشتهٔ تست، نُه فلک، میدانی |
33 |
|
شمارهٔ ۱۱ : با جان چه کنم که عشق تو جانم بس |
34 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چون روی تو مینبینم ای شمع طراز |
56 |
|
شمارهٔ ۱۳ : هر شب که نیاوری شبیخون غمت |
50 |
|
شمارهٔ ۱۴ : من عاشق روی تو ز دیری گاهم |
57 |
|
شمارهٔ ۱۶ : گر ماه نه زیر میغ میداشتیی |
70 |
|
شمارهٔ ۱۵ : درد تو که در دلم به جای جان بود |
49 |
|
شمارهٔ ۱۷ : رنج تو به صد گنج مسلم ندهم |
51 |
|
شمارهٔ ۱۸ : پیوسته به جان و تن ترا خواهم خواست |
39 |
|
شمارهٔ ۱۹ : ای بس که دلم بر در تو خون بگریست |
44 |
|
شمارهٔ ۲۰ : دلها که به جمع آرزوی تو کنند |
41 |
|
شمارهٔ ۲۴ : ای قاعدهٔ عشق تو جان افزایی |
38 |
|
شمارهٔ ۲۵ : در عشق تو جان قویم میباید |
34 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گه جان مرا غرق ملاهی میدار |
51 |
|
شمارهٔ ۲۱ : جانم، ز میان جان، وفای تو کند |
49 |
|
شمارهٔ ۲۲ : چندان که دلم سوی تو بشتابد باز |
52 |
|
شمارهٔ ۲۳ : دیرست که سودای تو در سر دارم |
51 |
|
شمارهٔ ۲۷ : از بس که شدم ز عشق تو دور اندیش |
35 |
|
شمارهٔ ۲۸ : کو هیچ رهی که پیش آن سدّی نیست |
38 |
|
شمارهٔ ۳۰ : عشقت ز ابد تا به ازل میبینم |
35 |
|
شمارهٔ ۳۵ : دوش آمد و گفت اگر دل ما داری |
41 |
|
شمارهٔ ۲۹ : از خود برهان مرا که بس ممتحنم |
30 |
|
شمارهٔ ۳۱ : در عشق تو اسبِ جان بسر خواهم تاخت |
41 |
|
شمارهٔ ۳۲ : گه در عشقت بی سر و پا میسوزیم |
44 |
|
شمارهٔ ۳۳ : افتان خیزان در ره تو میپوییم |
46 |
|
شمارهٔ ۳۴ : بی روی تو چشم بر چه خواهم انداخت |
69 |
|
شمارهٔ ۳۶ : ای بی سر و بن گشته جهانی از تو |
52 |
|
شمارهٔ ۳۷ : گه پیش تو چون قلم بسر میآییم |
43 |
|
شمارهٔ ۳۸ : جانا ز غم عشق تو سرگردانم |
35 |
|
شمارهٔ ۴۴ : جانا! جانم ز قعر دریای حضور |
37 |
|
شمارهٔ ۳۹ : در درد خودم چو چرخ سرگردان کن |
43 |
|
شمارهٔ ۴۰ : سر با تو ببازم، کلِه من اینست |
52 |
|
شمارهٔ ۴۱ : در راه تو، دل واقعهٔ مشکل خواست |
51 |
|
شمارهٔ ۴۲ : هم بی دو جهان تویی و هم در دو جهان |
36 |
|
شمارهٔ ۴۳ : هر روز مرا با تو حسابی دگرست |
49 |
|
شمارهٔ ۴۵ : سر در سر سودای تو خواهم کردن |
54 |
|
شمارهٔ ۴۷ : تاکی باشم بستهٔ هستی بی تو |
46 |
|
شمارهٔ ۴۸ : دل را ز غمت بی سر و پا میدارم |
50 |
|
شمارهٔ ۴۹ : هرگه که میخوری خروشی بزنی |
36 |
|
شمارهٔ ۲ : دوش آمد و گفت: روز و شب میجوشی |
48 |
|
شمارهٔ ۴۶ : گر من نه چنین عاشق و شوریدهامی |
57 |
|
شمارهٔ ۵۰ : جانا! همه راه، بر زبانم بودی |
70 |
|
شمارهٔ ۱ : دوش آمد و برگشاد صد پردهٔ راز |
46 |
|
شمارهٔ ۳ : دوش آمد و دل ازو کبابی میگشت |
56 |
|
شمارهٔ ۴ : دوش آمد و گفت: چندم آواز دهی |
38 |
|
شمارهٔ ۵ : دوش آمد و گفت: چند تنها باشی |
52 |
|
شمارهٔ ۷ : دوش آمد و گفت: خانهٔ ما آخر |
62 |
|
شمارهٔ ۶ : دوش آمد و گفت: «در درون ما را باش |
41 |
|
شمارهٔ ۸ : دوش آمد و گفت: ای شب و روزت غمِ من |
55 |
|
شمارهٔ ۹ : دوش آمد و گفت: گردِ تو حلقه کنیم |
49 |
|
شمارهٔ ۱۰ : دوش آمد و گفت: گِردِ اِعزاز مگرد |
44 |
|
شمارهٔ ۱۱ : دوش آمد و گفت: مرغِ دل عاجز نیست |
52 |
|
شمارهٔ ۱۲ : دوش آمد و گفت: بی یقین مینرسی |
50 |
|
شمارهٔ ۱۳ : دوش آمد و گفت: خویش را دشمن باش |
38 |
|
شمارهٔ ۱۴ : دوش آمد و گفت: «در بلا پیوستی |
43 |
|
شمارهٔ ۱۵ : دوش آمد و گفت: روز و شب غمناکی |
46 |
|
شمارهٔ ۱۶ : دوش آمد و گفت: در جنون میفکنیم |
40 |
|
شمارهٔ ۱۷ : دوش آمد و صبر از دلِ درویشم رفت |
64 |
|
شمارهٔ ۱۸ : دوش آمد و گفت: بی قراری شب و روز |
48 |
|
شمارهٔ ۱۹ : دوش آمد و گفت: اگر وفا خواهی کرد |
43 |
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شمارهٔ ۲۰ : دوش آمد و گفت: کارِ ما خواهی کرد |
59 |
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شمارهٔ ۲۱ : دوش آمدو ره بر دل و جانم در بست |
39 |
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شمارهٔ ۲۲ : دوش آمد و گفت: حسن دنییست امشب |
53 |
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شمارهٔ ۲۳ : آن بت که دلم عاشقِ جانبازش بود |
48 |
|
شمارهٔ ۲۴ : دوش از درِ دل درآمد آن بینایی |
68 |
|
شمارهٔ ۲۵ : دوش از سر لطفی بنشاندست مرا |
55 |
|
شمارهٔ ۲۶ : دوش از برِ خویش سرنگونم میتاخت |
45 |
|
شمارهٔ ۳۳ : امشب ز پگاهی به خروش آمدهای |
49 |
|
شمارهٔ ۲۷ : دل دوش ز لعلِ همچو قندش میسوخت |
45 |
|
شمارهٔ ۲۸ : دی میشد و دل رها نمیکرد به کس |
36 |
|
شمارهٔ ۲۹ : دوش آمد و گفت: مردمِ دوراندیش |
54 |
|
شمارهٔ ۳۰ : دی گفت: کجا شدی،چنین میباید |
39 |
|
شمارهٔ ۳۱ : دوشش دیدم چو زلف خود در تابی |
42 |
|
شمارهٔ ۳۲ : امشب بَرِ ما مست که آورد ترا |
49 |
|
شمارهٔ ۳۵ : دوش آمد و گفت: ای وطن بگرفته |
75 |
|
شمارهٔ ۳۸ : دی گفت: حجب ز پیش برنگرفتم |
48 |
|
شمارهٔ ۳ : تا روی ز زیرِ پرده بنمودی تو |
51 |
|
شمارهٔ ۳۴ : دوش آمد و گفت: هیچ آزرمت نیست |
59 |
|
شمارهٔ ۳۶ : دوش آمد و گفت: اگر چه کم میآیم |
53 |
|
شمارهٔ ۳۷ : دی گفت: چو تو صد به زیانی سوزم |
60 |
|
شمارهٔ ۱ : چون روی تو در همه جهان روی کراست |
45 |
|
شمارهٔ ۲ : بی موی تونیست موی کس موئی راست |
37 |
|
شمارهٔ ۴ : در کوی تو آفتاب منزل بگرفت |
49 |
|
شمارهٔ ۶ : عشقت به هزار پادشاهی ارزد |
39 |
|
شمارهٔ ۵ : ای واقعهٔ عشقِ تو کاری مشکل |
51 |
|
شمارهٔ ۷ : ای زلفِ تو صد دامِ ستم افکنده |
73 |
|
شمارهٔ ۸ : جانا غم عشقت دل و دینم نگذاشت |
45 |
|
شمارهٔ ۹ : زلف و رخِ تو که قصدِ جان دارندم |
45 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ای روی چو آفتابِ تو پشت سیاه |
66 |
|
شمارهٔ ۱۶ : گر در همه عمر آرزوئیم بوَد |
40 |
|
شمارهٔ ۱۸ : تا حلقهٔ آن زلف مشوّش دیدم |
32 |
|
شمارهٔ ۱۹ : در جنب رخت چو ماه میننماید |
82 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ای پیش تو سرو و ماه پیوسته رهی |
55 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چون ماه، به قطع، آب روی تو نداشت |
42 |
|
شمارهٔ ۱۳ : گر پرده ز روی دلستان برگیری |
59 |
|
شمارهٔ ۱۴ : ای گم شده درحسنِ تو هر دیدهوری |
53 |
|
شمارهٔ ۱۵ : تا دیده بر آن عارضِ گلگون افتاد |
41 |
|
شمارهٔ ۱۷ : ای تُرک! دلم غاشیه بر دوش تو شد |
62 |
|
شمارهٔ ۲۰ : بی عشق تو زیستن دریغم آید |
64 |
|
شمارهٔ ۲۱ : ای حسن تو درحدّ کمال افتاده |
69 |
|
شمارهٔ ۲۳ : ای نرگسِ صفرا زده سودائی تو |
46 |
|
شمارهٔ ۲۴ : لعلت که بلای دل و دین آید هم |
65 |
|
شمارهٔ ۲۲ : خورشید که چرخ در نکوئیش آورد |
62 |
|
شمارهٔ ۲۵ : تا روی چو آفتاب جانان بفروخت |
51 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گل را به چمن گونهٔ رخسار تو نیست |
50 |
|
شمارهٔ ۲۷ : عشق رخ تو که کیمیای خطرست |
44 |
|
شمارهٔ ۲۸ : گاهی ز سرِ زلفِ سیاهت ترسم |
59 |
|
شمارهٔ ۳۳ : بگشاده رخ و بسته قبا میآید |
46 |
|
شمارهٔ ۲۹ : کوثر که لبِ ترا ندیم افتادهست |
57 |
|
شمارهٔ ۳۰ : ماهی که ز رخ یک سرِ مویم ننمود |
64 |
|
شمارهٔ ۳۱ : آن ماه که سجده بُرد انجم او را |
42 |
|
شمارهٔ ۳۲ : بی لعلِ لبش شکرستان میچکنم |
48 |
|
شمارهٔ ۳۴ : آن روز که روی دلستان نتوان دید |
88 |
|
شمارهٔ ۳۷ : دوش آمد و بنشست به صد زیبایی |
46 |
|
شمارهٔ ۳۸ : از بادهٔ عشق تو خماری دارم |
50 |
|
شمارهٔ ۳۵ : شرطِ رَهِ عشق چیست، درخون گشتن |
45 |
|
شمارهٔ ۳۶ : ای باد به سوی زلفِ آن یار بتاز |
53 |
|
شمارهٔ ۳۹ : دل، خستهٔ چشم ناوک انداز مدار |
36 |
|
شمارهٔ ۴۰ : اول که به پیشِ خویشتن راهم داد |
59 |
|
شمارهٔ ۴۱ : زلف تو برفت از نظرم چه توان کرد |
59 |
|
شمارهٔ ۴۳ : زلف تو که بود آرزوئی همه را |
52 |
|
شمارهٔ ۴۵ : جانا! ز همه جهان نشستم برتر |
48 |
|
شمارهٔ ۴۶ : تا در سر زلفت خم و چین افکندی |
57 |
|
شمارهٔ ۴۲ : دل دادم و ترکِ کفر ودینش کردم |
49 |
|
شمارهٔ ۴۴ : دل در خم آن زلف چو زنجیر بماند |
42 |
|
شمارهٔ ۴۷ : زلف تو که چون مشک به هر سوی افتاد |
40 |
|
شمارهٔ ۴۸ : دل گفت: «رهِ زلف تو چون کوتاهی است» |
42 |
|
شمارهٔ ۴۹ : شب نیست که جان بی تو به لب مینرسد |
44 |
|
شمارهٔ ۵۰ : در زلف اگرچه جایگاهی سازی |
58 |
|
شمارهٔ ۵۲ : بوئی که ز زلف مشکبوی تو رسد |
57 |
|
شمارهٔ ۵۵ : گر لعل لب تو آب حیوانم داد |
39 |
|
شمارهٔ ۵۷ : ای خاصیتِ لعل تو جان پروردن |
47 |
|
شمارهٔ ۵۱ : زان خط که به گردِ شکر آوردی تو |
60 |
|
شمارهٔ ۵۳ : چون گشت دل من از سر زلف تو مست |
51 |
|
شمارهٔ ۵۴ : در عشق رخت چون رخ تو بیشم نیست |
96 |
|
شمارهٔ ۵۶ : هرکاو رخ تو بدید حیران ماند |
33 |
|
شمارهٔ ۵۸ : دل در سر زلف چون توحسن افروزی |
36 |
|
شمارهٔ ۵۹ : مشکین رسنت چو پردهٔ ماه شود |
90 |
|
شمارهٔ ۶۱ : گفتی که اگر میطلبی تدبیری |
50 |
|
شمارهٔ ۶۰ : چون چشمِ تو تیرِ غمزه محکم انداخت |
47 |
|
شمارهٔ ۶۲ : دل روی بدان زلفِ سرافراز آورد |
37 |
|
شمارهٔ ۶۳ : گه لعلِ تو از قند دلم خواهد تافت |
39 |
|
شمارهٔ ۶۴ : تا زلف ترا به خونِ دل، رای افتاد |
49 |
|
شمارهٔ ۶۵ : در زلفِ تو صد حلقهٔ دیگرگون است |
56 |
|
شمارهٔ ۶۶ : ای بیخبر از رنج و گرفتاری من |
37 |
|
شمارهٔ ۷۲ : زلف تودگر ز دست نگذارم من |
43 |
|
شمارهٔ ۶۷ : گر کشته شوم کشته به نامِ تو شوم |
38 |
|
شمارهٔ ۶۸ : چون نیست ز عقل ذرّهای توفیرم |
56 |
|
شمارهٔ ۶۹ : تا زلفِ زره ورت به هم تافته شد |
39 |
|
شمارهٔ ۷۰ : تا در سرِ زلفت خم و تاب افکندی |
53 |
|
شمارهٔ ۷۱ : چون مشکِ خط تو سایه ور میافتد |
59 |
|
شمارهٔ ۷۳ : ای پردهٔ دل پرده نوازت بوده |
43 |
|
شمارهٔ ۱ : هر روز سرِ زلفِ تو کاری نهدم |
38 |
|
شمارهٔ ۲ : لعلت به صواب هیچ کس دم نزند |
50 |
|
شمارهٔ ۳ : چشمِ سیهت که فتنهٔ آفاق است |
35 |
|
شمارهٔ ۴ : هر دم به حیل زخمِ دگر سانم زن |
35 |
|
شمارهٔ ۷۴ : بیچاره دلِ من که غمِ جانش نیست |
46 |
|
شمارهٔ ۷۵ : گر لعلِ لبِ تو دَرِّ شهوارم داد |
45 |
|
شمارهٔ ۷۶ : تا کی کمرِ عهد و وفا باید بست |
62 |
|
شمارهٔ ۵ : هم زلف تو از برونِ دل در تاب است |
52 |
|
شمارهٔ ۸ : دردی که ز تو به حاصلم میآید |
53 |
|
شمارهٔ ۹ : تا غمزهٔ چشم رهزنت راهم زد |
49 |
|
شمارهٔ ۱۳ : از زلفِ شکن بر شکنت میترسم |
41 |
|
شمارهٔ ۶ : در عشقِ تو عقل و هوش مینتوان داشت |
46 |
|
شمارهٔ ۷ : تا ابروی طاقِ تو کماندار افتاد |
62 |
|
شمارهٔ ۱۰ : چون خطِّ رخت هست روان چندینی |
62 |
|
شمارهٔ ۱۱ : زلفِ تو به هم در اوفتاده عجب است |
54 |
|
شمارهٔ ۱۲ : چشمِ خوشِ تو که مذهبِ عبهر داشت |
65 |
|
شمارهٔ ۲۰ : دایم گهر وصل تو میجویم باز |
53 |
|
شمارهٔ ۱۴ : گر عفو کنی به لطف جرمی که مراست |
55 |
|
شمارهٔ ۱۵ : از زلفِ تو دل چو در عقابین افتاد |
42 |
|
شمارهٔ ۱۶ : خطّت دام است و خالت او را دانه است |
49 |
|
شمارهٔ ۱۷ : گفتم: خط مشکین تو بر ماه خطاست |
59 |
|
شمارهٔ ۱۸ : گفتم: «کس را روی تو و موی تو نیست |
47 |
|
شمارهٔ ۱۹ : چون غمزهٔ تو جادویی آغاز نهد |
44 |
|
شمارهٔ ۱۹ : چون غمزهٔ تو جادویی آغاز نهد |
49 |
|
شمارهٔ ۱ : بر لب، خط فستقیش، پیوسته بماند |
40 |
|
شمارهٔ ۲ : ای مورچهٔ خط! بدمیدی آخر |
55 |
|
شمارهٔ ۴ : گفتم: دل من ببردی ای جادو وش! |
50 |
|
شمارهٔ ۵ : گفتم: ز خط تو بوی خون میآید |
51 |
|
شمارهٔ ۶ : گه در خط دلبران شیرین نگرم |
44 |
|
شمارهٔ ۷ : زین خط که لعل تو کنون میآرد |
63 |
|
شمارهٔ ۸ : از تیرِ غمت بسی جگر دوختهای |
35 |
|
شمارهٔ ۳ : بی برگ گلش جامه قبا خواهم کرد |
52 |
|
شمارهٔ ۹ : گفتی: «خطم از لبم جدا خواهد شد |
47 |
|
شمارهٔ ۱۰ : ای زلفِ تو دامن قمر بگرفته |
47 |
|
شمارهٔ ۱۲ : تا خط تو پشت بر قمر آوردست |
44 |
|
شمارهٔ ۱۳ : چون خط تو باعث گنه خواهد شد |
88 |
|
شمارهٔ ۱۱ : یا رب چه خط است این که درآوردی تو |
61 |
|
شمارهٔ ۱۴ : اندیشهٔ ابروی تو پیوسته مراست |
40 |
|
شمارهٔ ۱۵ : از پستهٔ تو سبزهٔ خط بر رسته است |
46 |
|
شمارهٔ ۱۶ : تا خط تو بر خون جگر میخوانم |
55 |
|
شمارهٔ ۲۰ : از عشقِ خط تو سرنگون میگردم |
43 |
|
شمارهٔ ۱ : لعلت که خجل کرد گل رعنا را |
71 |
|
شمارهٔ ۱۷ : آن پسته میان مغز چون افتادست |
45 |
|
شمارهٔ ۱۸ : دوش آمد و گفت: «آمدهام حور سرشت |
46 |
|
شمارهٔ ۱۹ : از خجلت خط، رخت اگر پر عرق است |
66 |
|
شمارهٔ ۲۱ : خال تو که جاودان بدو بتوان دید |
61 |
|
شمارهٔ ۴ : زلفِ تو سرِ درازدستی دارد |
45 |
|
شمارهٔ ۷ : لعل تو براتِ کامرانی دهدم |
61 |
|
شمارهٔ ۲ : چون دیده به روی تو نظر بگشاید |
54 |
|
شمارهٔ ۳ : جانم که به لب از لب لعل تو رسید |
54 |
|
شمارهٔ ۵ : ای کرده پسند از دو جهان چاره منت |
66 |
|
شمارهٔ ۶ : بنگر که دلم چه گونه مظلوم نمود |
49 |
|
شمارهٔ ۸ : چون توبهٔ تو گناه خواهد افتاد |
32 |
|
شمارهٔ ۹ : زانگه که مرا سوی تو آهنگ افتاد |
52 |
|
شمارهٔ ۱۰ : فرسودنِ لعلِ آبدارت بر من |
49 |
|
شمارهٔ ۱۲ : دل نیست کز آن ماه برنجد هرگز |
43 |
|
شمارهٔ ۱۴ : از وعدهٔ کژ دل به غمت میافتد |
29 |
|
شمارهٔ ۱۵ : آنجا که سر زلف تو جانها ببرد |
44 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ای جانِ همه جهان زکوةِ لبِ تو |
56 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای ماه به چهره یا گلی یا سمنی |
52 |
|
شمارهٔ ۱۶ : آن خندهٔ خوش اگرچه پیوسته بهَست |
59 |
|
شمارهٔ ۱۷ : آن دل که ز دست من کنون خواهی برد |
52 |
|
شمارهٔ ۱۹ : چون گشت لبت به یک شکر ارزانی |
57 |
|
شمارهٔ ۱۸ : بر شاخِ دل شکسته یک برگم نیست |
44 |
|
شمارهٔ ۲۰ : زهرم آید شکرستان بی لبِ تو |
42 |
|
شمارهٔ ۲۱ : چشمت که سبق به دلربائی او راست |
66 |
|
شمارهٔ ۲۲ : کس مثل تو در جهانِ جان ماه نیافت |
49 |
|
شمارهٔ ۲۳ : من بی سر و سامانِ تو میخواهم زیست |
44 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون گِرد مه از مشک سیه مور آورد |
41 |
|
شمارهٔ ۲۵ : زان پسته که شیرینی جان میخیزد |
48 |
|
شمارهٔ ۲۷ : گفتم:«شکری از دهنت، درگذری |
45 |
|
شمارهٔ ۲۸ : دل، مست بتی عهدشکن دارم من |
45 |
|
شمارهٔ ۲۶ : در عشق دلم هیچ نمیسنجد از او |
49 |
|
شمارهٔ ۲۹ : گفتم که «چنان شیفتهٔ آن دهنم |
49 |
|
شمارهٔ ۳۰ : گفتم: «شکریم ده مسلمانی نیست» |
43 |
|
شمارهٔ ۳۱ : گفتم که «هزار رونق افزون گیری |
46 |
|
شمارهٔ ۳۲ : گفتم:«بردی از لب و دندان جانم |
48 |
|
شمارهٔ ۳۳ : میآمد و بر زلف شکن میانداخت |
35 |
|
شمارهٔ ۳۵ : عشقش ز وجودم عدمی میسازد |
57 |
|
شمارهٔ ۳ : ای عقل ز شوق تو فغان در بسته |
40 |
|
شمارهٔ ۴ : جانا چو برت حریر میبینم من |
48 |
|
شمارهٔ ۵ : من بی سر و سامان تو خواهم آمد |
51 |
|
شمارهٔ ۳۴ : ترکم همه کارم به خلل خواهد کرد |
46 |
|
شمارهٔ ۱ : گفتم که «ترا عقل مه تابان گفت» |
51 |
|
شمارهٔ ۲ : ای ماه! گشاده کن به وصلت گرهام |
83 |
|
شمارهٔ ۶ : با روی تو ماه را محل نتوان یافت |
53 |
|
شمارهٔ ۷ : جائی که چنان خطّ سیه رنگ آید |
40 |
|
شمارهٔ ۸ : نه دل به تمنای تو در بر گنجد |
47 |
|
شمارهٔ ۹ : ای عشق توام کار به جان آورده |
64 |
|
شمارهٔ ۱۰ : وقت است که دل از دو جهان برگیریم |
54 |
|
شمارهٔ ۱۱ : بی روی تو مه راهِ تماشا نگرفت |
46 |
|
شمارهٔ ۱ : گر خورشیدی چرخ برینت نرسد |
40 |
|
شمارهٔ ۲ : از درد تو ای ماهِ دل افروز آخر |
50 |
|
شمارهٔ ۳ : بر خاکِ درت پای در آتش بودن |
51 |
|
شمارهٔ ۹ : ای عشق رخت واقعهٔ مشکل من |
41 |
|
شمارهٔ ۴ : گفتی که «ترا چو خاک گردانم پست |
47 |
|
شمارهٔ ۵ : پیوسته به آرزو ترا باید خواست |
46 |
|
شمارهٔ ۶ : در عشق تو جز بلا و غم ناید راست |
38 |
|
شمارهٔ ۷ : از بس که تو خود به خویشتن مینازی |
66 |
|
شمارهٔ ۸ : دل بی تو ز اختیار بر خواهد خاست |
32 |
|
شمارهٔ ۱۳ : تا چند مرا سوخته خرمن نگری |
52 |
|
شمارهٔ ۱۴ : آن است همه آرزویم عمر دراز |
62 |
|
شمارهٔ ۱۰ : آن کس که ترا عزیزتر ازجان دید |
64 |
|
شمارهٔ ۱۱ : گر از تو مرا کفر و اگر ایمان است |
46 |
|
شمارهٔ ۱۲ : تا چند مرا خوار و خجل خواهی داشت |
45 |
|
شمارهٔ ۱۵ : جانا! چو ز سر تا قدمت جمله نکوست |
53 |
|
شمارهٔ ۱۶ : ای مونسِ جانِ همه کس! در من خند! |
47 |
|
شمارهٔ ۱۷ : سهل است اگر کار مرا ساز دهی |
53 |
|
شمارهٔ ۲۰ : بی یاد تو من سرزبان را بزنم |
46 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گفتم: «ز میان جان شوم خاک درش |
63 |
|
شمارهٔ ۱۸ : بر خاک چو بادم ای دل افزای هنوز |
53 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گفتم که اگر دلِ تو یک رنگ آید |
59 |
|
شمارهٔ ۲۲ : یا رب چه دمم بود که دمساز نداد |
47 |
|
شمارهٔ ۲۳ : گفتم: «چو تنم ضعیف و لاغر باشد |
43 |
|
شمارهٔ ۲۴ : دوش آمد و دادِ دلِ سرمستم داد |
56 |
|
شمارهٔ ۲۶ : از بس که بخورد خون من بیدادی |
56 |
|
شمارهٔ ۲۹ : ماهی که به قد سرو روانم آمد |
187 |
|
شمارهٔ ۲۵ : گر جان خواهد از بن دندان بدهم |
43 |
|
شمارهٔ ۲۷ : تا از غم تب دلش به صد درد افتاد |
47 |
|
شمارهٔ ۲۸ : ماهی که دلم زو به بلا افتادست |
54 |
|
شمارهٔ ۳۰ : دل در غم تو غرقهٔ خونِ جگر است |
52 |
|
شمارهٔ ۱ : عشقت که به صد هزار جان ارزانی است |
45 |
|
شمارهٔ ۲ : نی در ره تو گرد تو میبینم من |
62 |
|
شمارهٔ ۴ : نه مرد و نه نامرد توام میدانی |
43 |
|
شمارهٔ ۶ : هم بر جانم این همه غم میدانی |
28 |
|
شمارهٔ ۷ : چندان که غم تو میشود انبوهم |
52 |
|
شمارهٔ ۳ : بر باطل نیست گر دلم دیوانه است |
48 |
|
شمارهٔ ۵ : در عشق تو پیوسته به جان میگردم |
60 |
|
شمارهٔ ۸ : وقت است که بیقراری ما بینی |
48 |
|
شمارهٔ ۹ : سودای ترا پشت سپه میدارم |
47 |
|
شمارهٔ ۱۰ : جانا ز رهت نصیب من گردی نیست |
52 |
|
شمارهٔ ۱۶ : ای عشقِ تو عینِ عالم حیرانی |
49 |
|
شمارهٔ ۱۱ : زان روز که بوی پیرهن بی تو رسید |
52 |
|
شمارهٔ ۱۲ : تادل دارم همدم تو باید داشت |
45 |
|
شمارهٔ ۱۳ : آن راز که دل به دیده میگوید باز |
51 |
|
شمارهٔ ۱۴ : ای ابر هوای عشق تو بس خون بار |
56 |
|
شمارهٔ ۱۵ : از درد منت اگر خبر خواهد بود |
45 |
|
شمارهٔ ۱۷ : جانا صد ره بمُردم از حیرانی |
56 |
|
شمارهٔ ۱۹ : در راه تو دانش و خرد مینرسد |
54 |
|
شمارهٔ ۲۰ : گر قلب نبرد بایدت اینک دل |
90 |
|
شمارهٔ ۲۱ : تا دل به غمت فرو شد و برنامد |
42 |
|
شمارهٔ ۱۸ : چون حسن و جمال جاودان داری تو |
35 |
|
شمارهٔ ۲۲ : گاهی چو گهر ز تیغ میتابی تو |
67 |
|
شمارهٔ ۲۳ : گر دل گویم ز غایت مشتاقی |
43 |
|
شمارهٔ ۲۴ : جانا! ز غمت این دل دیوانه بسوخت |
44 |
|
شمارهٔ ۲۵ : دل بی تو چو بی سلامتی برخیزد |
38 |
|
شمارهٔ ۲۶ : دردی که ز تو رسد دوا نتوان کرد |
42 |
|
شمارهٔ ۲۸ : جانا! غم تو فکند در کوی مرا |
43 |
|
شمارهٔ ۲۷ : هم عاشق آن روی چو مه خواهم بود |
51 |
|
شمارهٔ ۲۹ : زان روز که عشق تو به من درنگریست |
38 |
|
شمارهٔ ۳۰ : بس قصّه که بر خلق شمردم ز غمت |
51 |
|
شمارهٔ ۳۴ : خوش خوش بربود نیکوئی تو مرا |
52 |
|
شمارهٔ ۳۶ : دوشم غم تو وداع جان میفرمود |
56 |
|
شمارهٔ ۳۷ : در عشق تو خوف و خطرم بسیارست |
44 |
|
شمارهٔ ۳۱ : در عشق توام هم نفس اندوه تو بس |
66 |
|
شمارهٔ ۳۲ : در عشق تو من با دل پرخون چکنم |
55 |
|
شمارهٔ ۳۳ : تن را که در آتش عذاب افتاده است |
46 |
|
شمارهٔ ۳۵ : جانا! دل و جانم آتش افروز از تست |
55 |
|
شمارهٔ ۳۸ : دل نیست که از عشق تو خون مینشود |
50 |
|
شمارهٔ ۳۹ : در دست جفای تو زبون است دلم |
50 |
|
شمارهٔ ۱ : خونِ من خاکی که بریزد آخر |
42 |
|
شمارهٔ ۲ : بی چهرهٔ تو چشم کرادارم من |
60 |
|
شمارهٔ ۴۰ : دانی تو که از حلقهٔ زلفت چونم |
36 |
|
شمارهٔ ۳ : تاکی بی تو زاری پیوست کنم |
47 |
|
شمارهٔ ۴ : خواهم که همی عاشق رویت میرم |
51 |
|
شمارهٔ ۵ : گاه از غم تو مست و خرابم بینی |
74 |
|
شمارهٔ ۶ : جانا! تو کجائی که نیازم بینی |
42 |
|
شمارهٔ ۸ : در عشق تو من گرد جنون میگردم |
60 |
|
شمارهٔ ۱۰ : جان سوخته پای بست آمد بی تو |
42 |
|
شمارهٔ ۷ : در عشق تو راه این دل غافل گم کرد |
59 |
|
شمارهٔ ۹ : در عشقِ تو رسوای جهان آمدهایم |
50 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ای شمع چگل! تاتو برفتی ز برم |
39 |
|
شمارهٔ ۱۲ : در عشقِ تو برخویشتنم فرمان نیست |
51 |
|
شمارهٔ ۱۳ : جانا! دل من زیر و زبر خواهد شد |
60 |
|
شمارهٔ ۱۴ : تا کی طلبم ز هر کسی پیوستت |
55 |
|
شمارهٔ ۱۸ : تا عشق نشست ناگهی در سر من |
39 |
|
شمارهٔ ۱۹ : بی عشق نفس زدن حرام است مرا |
49 |
|
شمارهٔ ۱۵ : جان گِردِ تو از میان جان میگردد |
41 |
|
شمارهٔ ۱۶ : خود را ز تو بیگناه مینتوان داشت |
44 |
|
شمارهٔ ۱۷ : مهری که ز تو در دل من بنهفته است |
55 |
|
شمارهٔ ۲۰ : عمری به هوس در تک و تاز آمد دل |
44 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گر دل گویم به پای غم پست افتاد |
52 |
|
شمارهٔ ۳ : کم گوی که ترک حرف میباید کرد |
53 |
|
شمارهٔ ۲۲ : زانگه که دلم بر آن سمن بر بگذشت |
67 |
|
شمارهٔ ۴ : عاشق ز همه کار جهان فرد بود |
44 |
|
شمارهٔ ۲۳ : چون درد و دریغ از دل ریشم بنشد |
53 |
|
شمارهٔ ۲۴ : ماهی که به حسن، عالم آرای افتاد |
55 |
|
شمارهٔ ۱ : خواهی که ز شغل دو جهان فرد شوی |
68 |
|
شمارهٔ ۲ : در عشق اگر جان بدهی جان اینست |
61 |
|
شمارهٔ ۶ : برقی که ز سوی دوست ناگه برود |
48 |
|
شمارهٔ ۵ : بس سر که به زیر تیغ خواهد بودن |
69 |
|
شمارهٔ ۷ : کو جان که به چاره چارهٔ جان کنمش |
40 |
|
شمارهٔ ۸ : دل را چو به دردِ عشق افسون کردم |
45 |
|
شمارهٔ ۹ : دل چون دل من غم زده نتواند بود |
42 |
|
شمارهٔ ۱۰ : چندان که به جهد اسب جان میرانم |
45 |
|
شمارهٔ ۱۱ : بیم است که نُه پردهٔ گردون سحری |
45 |
|
شمارهٔ ۱۲ : کس را چه خبر ز آهِ دلسوزِ دلم |
97 |
|
شمارهٔ ۱۴ : گر مرد رهی همدم و همدردم باش |
34 |
|
شمارهٔ ۱۵ : ای قوم! اگر همدم این مسکینید |
59 |
|
شمارهٔ ۱۶ : اندیشهٔ عالمی مرا افتادست |
50 |
|
شمارهٔ ۱۳ : در عشق، خلاصهٔ جنون از من خواه |
48 |
|
شمارهٔ ۱۷ : هر لحظه دل و جان به غمی تازه درند |
49 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گر مملکت درد مسلم بکنم |
44 |
|
شمارهٔ ۱۸ : برخاست دلم چنانکه در غم بنشست |
54 |
|
شمارهٔ ۲۲ : چون خیل بلا ز پیش و از پس بودم |
46 |
|
شمارهٔ ۲۰ : در پیشِ نظر این همه میغم ز چه خاست |
58 |
|
شمارهٔ ۲۱ : دردی که مرا در دل بی درمان است |
44 |
|
شمارهٔ ۲۳ : ره نیست بدان دانه کِشتند مرا |
40 |
|
شمارهٔ ۲۴ : چون هست غمت غمی دگر حاجت نیست |
50 |
|
شمارهٔ ۱ : ما رندان را حلقه به گوش آمدهایم |
57 |
|
شمارهٔ ۲ : ما خرقهٔ رسم، از سرانداختهایم |
43 |
|
شمارهٔ ۹ : چون با سرو دستار نمیپردازم |
58 |
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شمارهٔ ۱۰ : در عشق بزرگیم به خردی بدهم |
58 |
|
شمارهٔ ۳ : تا دل به غم عشق تو در خواهد بود |
40 |
|
شمارهٔ ۴ : زانگه که مرا عشق تودرکار آورد |
36 |
|
شمارهٔ ۵ : در عشق تو دین خویش نو خواهم کرد |
57 |
|
شمارهٔ ۶ : سودای توام بیدل و دین میخواهد |
53 |
|
شمارهٔ ۷ : آن رفت که گفتمی من از زهد سخن |
46 |
|
شمارهٔ ۸ : معشوقه نه سر،نه سروری میخواهد |
55 |
|
شمارهٔ ۱۲ : نه در سرِ من سَرِسری بینی تو |
55 |
|
شمارهٔ ۱۴ : تا چند ز زاهد ریائی آخر |
55 |
|
شمارهٔ ۱۷ : گر زهد کنی سوز وگدازت ببرد |
30 |
|
شمارهٔ ۱۱ : ترسابچهای که توبه بشکست مرا |
43 |
|
شمارهٔ ۱۳ : تا در بُنهٔ خویش مقام است ترا |
57 |
|
شمارهٔ ۱۵ : از بس که دلم بسوخت زین کاردرشت |
61 |
|
شمارهٔ ۱۶ : زین دَرد که جز غصهٔ جان میندهد |
37 |
|
شمارهٔ ۱۸ : خواهی که ز خود به رایگان باز رهی |
50 |
|
شمارهٔ ۲۳ : دل گشت ز معصیت سیاه ای ساقی |
72 |
|
شمارهٔ ۲۵ : چون گل بشکفت در بهار ای ساقی |
45 |
|
شمارهٔ ۱۹ : خون شد جگرم بیار جام ای ساقی |
43 |
|
شمارهٔ ۲۰ : از تفِّ دلم می به صباح ای ساقی |
58 |
|
شمارهٔ ۲۱ : شمع است و شراب و ماهتاب ای ساقی |
62 |
|
شمارهٔ ۲۲ : همچون من و تو علی الیقین ای ساقی |
47 |
|
شمارهٔ ۲۴ : هم سبزهٔ سرمست برُست ای ساقی |
43 |
|
شمارهٔ ۲۶ : تاکی شوم از زمانه پست ای ساقی |
52 |
|
شمارهٔ ۲۷ : سلطان، تو، به می دهندگی ای ساقی |
35 |
|
شمارهٔ ۲۹ : گل روی نمود از چمن ای ساقی |
47 |
|
شمارهٔ ۳۰ : پر کن شکمی به اشتها ای ساقی |
45 |
|
شمارهٔ ۳۱ : تا چند ازین بی خبران ای ساقی |
60 |
|
شمارهٔ ۲۸ : تا کی گوئی ز چار و هفت ای ساقی |
55 |
|
شمارهٔ ۳۲ : هرگز نه جهانِ کهنه نو خواهد شد |
44 |
|
شمارهٔ ۳۳ : برخاست دلم، چوباده در خم بنشست |
49 |
|
شمارهٔ ۴۰ : چون گل بشکفت ساعتی برخیزیم |
43 |
|
شمارهٔ ۳۴ : وقت است که در بر آشنائی بزنیم |
184 |
|
شمارهٔ ۳۵ : ترسم که چو پیش ازین کم از کم نرسیم |
52 |
|
شمارهٔ ۳۶ : ای هم نفسان فعل اجل میدانید |
38 |
|
شمارهٔ ۳۷ : خوش باش دلا که نیک وبد میبرسد |
56 |
|
شمارهٔ ۳۸ : بر چهرهٔ گل شبنم نوروز خوشست |
41 |
|
شمارهٔ ۳۹ : چون پرتو شمع بر شراب است امشب |
51 |
|
شمارهٔ ۴۱ : گر سبز خطی است، گوشهای خالی گیر |
35 |
|
شمارهٔ ۴۴ : چون عهده نمیکند کسی فردا را |
42 |
|
شمارهٔ ۴۷ : دل گرچه ز عمر پیش خوردی دارد |
47 |
|
شمارهٔ ۴۸ : روزی که بود روز هلاک من و تو |
58 |
|
شمارهٔ ۴۹ : ساقی به صبوحی می ناب اندر ده |
43 |
|
شمارهٔ ۴۲ : بر آب روان و سبزه ای شمع طراز |
80 |
|
شمارهٔ ۴۳ : مهتاب به نور دامن شب بشکافت |
132 |
|
شمارهٔ ۴۵ : ای دل چو درین راه خطرناک شوی |
64 |
|
شمارهٔ ۴۶ : بر روی گل از ابر گلاب است هنوز |
74 |
|
شمارهٔ ۵۰ : مائیم به عقل ناصواب افتاده |
57 |
|
شمارهٔ ۵۵ : جانا گل بین جامهٔ چاک آورده |
31 |
|
شمارهٔ ۵۱ : خواهی که غم از دل تو یک دم بشود |
53 |
|
شمارهٔ ۵۲ : گل جلوه همی کند به بستان ای دوست |
58 |
|
شمارهٔ ۵۳ : بشکفت گل تازه به بستان ای دوست |
48 |
|
شمارهٔ ۵۴ : آن لحظه که از اجل گریزان گردیم |
41 |
|
شمارهٔ ۵۶ : چون صبح دمید ودامن شب شد چاک |
70 |
|
شمارهٔ ۵۸ : هر روز برآنم که کنم شب توبه |
35 |
|
شمارهٔ ۶۱ : مهتاب افتاد در گلستان امشب |
43 |
|
شمارهٔ ۶۳ : جانا! می ده که با دلی غمناکم |
75 |
|
شمارهٔ ۶۴ : زهرست غم این دل غمناک همه |
42 |
|
شمارهٔ ۵۷ : صبح از پس کوه روی بنمود ای دوست |
48 |
|
شمارهٔ ۵۹ : می خور که فلک بهر هلاک من و تو |
48 |
|
شمارهٔ ۶۰ : زان آتشِ تر که خیمه برکِشت زنند |
51 |
|
شمارهٔ ۶۲ : مائیم به میخانه شده جمع امشب |
53 |
|
شمارهٔ ۶۵ : این نوحه که از چنگ کنون میآید |
45 |
|
شمارهٔ ۶۶ : مائیم و میی و مطربی مشکین خال |
41 |
|
شمارهٔ ۶۷ : برخیز که ماه میزند خیمه ز شب |
38 |
|
شمارهٔ ۶۸ : برخیز که کار ما چو زر خواهد شد |
57 |
|
شمارهٔ ۶۹ : یک دم به طرب بادهٔ خوش لَوْن دهید |
41 |
|
شمارهٔ ۷۰ : دل در غم همدمی بفرسود و نیافت |
33 |
|
شمارهٔ ۷۲ : مخموران را پیالهٔ می در ده |
32 |
|
شمارهٔ ۷۵ : ای ترک قلندری شرابی در ده |
66 |
|
شمارهٔ ۷۱ : تا چند درین مقام بیدادگران |
54 |
|
شمارهٔ ۷۳ : جانا! می خور که چون گل تازه شکفت |
35 |
|
شمارهٔ ۷۴ : چون جلوهٔ گل ز گلستان پیدا شد |
38 |
|
شمارهٔ ۷۶ : برخیز که گل کیسهٔ زر خواهد ریخت |
53 |
|
شمارهٔ ۱ : بنگر ز صبا دامنِ گل چاک شده |
56 |
|
شمارهٔ ۴ : از دست گلابگر گل عشوه پرست |
72 |
|
شمارهٔ ۵ : با گل گفتم چو یوسفِ کنعانی |
75 |
|
شمارهٔ ۴ : از دست گلابگر گل عشوه پرست |
58 |
|
شمارهٔ ۷۷ : چندان که نگاه میکنم هر سوئی |
59 |
|
شمارهٔ ۲ : گل بین که به غنج و ناز خواهد خندید |
49 |
|
شمارهٔ ۳ : ابری که رخ باغ کنون خواهد شست |
45 |
|
شمارهٔ ۶ : بلبل که به عشق یک هم آواز نیافت |
73 |
|
شمارهٔ ۷ : بلبل همه شب شرحِ وصالت میخواند |
52 |
|
شمارهٔ ۸ : گل بین که بر اطراف چمن مینازد |
38 |
|
شمارهٔ ۹ : نی حال من و تو ماهوش میگوید |
31 |
|
شمارهٔ ۱۶ : گل گفت که دست زرفشان آوردم |
90 |
|
شمارهٔ ۱۰ : گل بی سر و پای خویشتن میانداخت |
45 |
|
شمارهٔ ۱۱ : چون برگِ گلت بدید گلبرگِ طری |
64 |
|
شمارهٔ ۱۲ : در پیش رخ تو آفتاب افسانهست |
41 |
|
شمارهٔ ۱۳ : گل بین که گلابِ ابر میدارد دوست |
32 |
|
شمارهٔ ۱۴ : گل گفت که رفتنم یقین افتادست |
66 |
|
شمارهٔ ۱۵ : گل گفت: اگرچه ابر صدگاهم شُست |
55 |
|
شمارهٔ ۱۷ : گل گفت که تا روی گشادند مرا |
40 |
|
شمارهٔ ۱۸ : گل گفت که تا چشم گشادند مرا |
42 |
|
شمارهٔ ۲۱ : گل گفت: که گه زخم زند صد خارم |
47 |
|
شمارهٔ ۲۳ : گل گفت که چند اوفتم در پستی |
63 |
|
شمارهٔ ۱۹ : گل گفت: کسم عمر به دریوزه نداد |
40 |
|
شمارهٔ ۲۰ : گل گفت: ز رخ نقاب باید انداخت |
42 |
|
شمارهٔ ۲۲ : گل گفت: مرا خون جگر خواهد ریخت |
59 |
|
شمارهٔ ۲۴ : گل گفت: نقاب برگشادیم و شدیم |
45 |
|
شمارهٔ ۲۵ : گل گفت: چنین که من کنون میآیم |
50 |
|
شمارهٔ ۲۶ : گل گفت: کسم هیچ فسون مینکند |
39 |
|
شمارهٔ ۲۷ : گل گفت: گلابگر چو تابم ببرد |
40 |
|
شمارهٔ ۲۸ : گل گفت: که با گلابگر هر سحری |
34 |
|
شمارهٔ ۲۹ : گل گفت: منم فتاده صد کار امروز |
41 |
|
شمارهٔ ۳۰ : گل گفت: چو نیست هفتهای روی نشست |
56 |
|
شمارهٔ ۳۱ : گل گفت ز تفِّ دل عرق خواهم کرد |
45 |
|
شمارهٔ ۳۲ : گل بر سر پای غرقهٔ خون زانست |
49 |
|
شمارهٔ ۳۳ : یارب صفت رایحهٔ نسرین چیست |
47 |
|
شمارهٔ ۳۴ : افکند گلابگر ز بیدادگری |
44 |
|
شمارهٔ ۳۷ : تاگل ز گریبان چمن سر بر کرد |
41 |
|
شمارهٔ ۳۵ : بلبل به سحرگه غزلی تر میخواند |
58 |
|
شمارهٔ ۳۶ : زین شیوه که اکنون گل تر میخیزد |
77 |
|
شمارهٔ ۳۸ : ای گل به دریغِ عمر دل پُر خون کن |
43 |
|
شمارهٔ ۳۹ : گرچه گل تر درآمدن سر تیز است |
43 |
|
شمارهٔ ۴۰ : میریخت گل و ز خاک مفرش میکرد |
32 |
|
شمارهٔ ۴۱ : بشکفت به صد هزار خوبی گل مست |
58 |
|
شمارهٔ ۴۴ : بلبل سخنی گفت به گل آهسته |
35 |
|
شمارهٔ ۴۵ : گل گفت که در خاک چرا ننشینم |
47 |
|
شمارهٔ ۴۲ : غنچه که چو پسته لب شود خندانش |
43 |
|
شمارهٔ ۴۳ : با گل گفتم که داد بستان و برو |
81 |
|
شمارهٔ ۴۶ : بلبل به سحر نعره زنان میآشفت |
65 |
|
شمارهٔ ۴۷ : در غنچه نگاه کن که چون میجوشد |
32 |
|
شمارهٔ ۴۸ : چون شور ز گل در دل بلبل افتاد |
43 |
|
شمارهٔ ۵۰ : با گل گفتم: چو چشم آن میدارم |
51 |
|
شمارهٔ ۴۹ : گل قصّهٔ بی خویشتنی خواهد گفت |
44 |
|
شمارهٔ ۵۱ : بشکفت گل و رونق شمشاد ببرد |
43 |
|
شمارهٔ ۵۲ : گل از پی عمری به طلب میآید |
60 |
|
شمارهٔ ۵۳ : گل عمر بسی کرد طلب پس چه کند |
58 |
|
شمارهٔ ۵۴ : با گل گفتم که با چنین عمر که هست |
62 |
|
شمارهٔ ۵۵ : گل بین که به صد غنج و به صدناز رسید |
65 |
|
شمارهٔ ۵۶ : تا پرده ز روی گلِ تر باز افتاد |
44 |
|
شمارهٔ ۵۷ : آن نقد نگر که در میان دارد گل |
46 |
|
شمارهٔ ۱ : ای صبح به یک نَفَس سبق چون بُردی |
30 |
|
شمارهٔ ۲ : ای صبح چو امشب تو ز اهلِ حَرَمی |
37 |
|
شمارهٔ ۴ : ای صبح قدم به جایگه بایدداشت |
32 |
|
شمارهٔ ۶ : ای صبح اگر دم به هوس خواهی زد |
46 |
|
شمارهٔ ۳ : ای صبح بجز نام تو را صادق نیست |
58 |
|
شمارهٔ ۵ : ای شب مزن از ستاره چندینی جوش |
58 |
|
شمارهٔ ۸ : چون هم نفسِ همه کسی هر جاییست |
48 |
|
شمارهٔ ۷ : بیهمدم اگر دمی زنی نقصان است |
29 |
|
شمارهٔ ۹ : ای صبح اگر از پرده عَلَم خواهی زد |
38 |
|
شمارهٔ ۱۰ : وقت است که ساقی سرِ می بگشاید |
49 |
|
شمارهٔ ۱۱ : آوازِ خروس صبح در سمع افتاد |
33 |
|
شمارهٔ ۱۲ : ای صبح مرو دم پراکنده مزن |
36 |
|
شمارهٔ ۱۴ : ای صبح مرا به صد عذاب اندازی |
36 |
|
شمارهٔ ۱۳ : ای صبح چرا اسبِ ستیز انگیزی |
19 |
|
شمارهٔ ۱۶ : ای صبح اگر عزیمتِ خنده کنی |
190 |
|
شمارهٔ ۱۵ : دوش از برِ من یار گریزان میرفت |
16 |
|
شمارهٔ ۱۷ : ای صبح هنوز ماهتاب است، مخند |
15 |
|
شمارهٔ ۱۸ : ای شب تو طریقِ زلفِ جانان داری |
21 |
|
شمارهٔ ۱۹ : ای صبح دمی به خنده بگشای لبی |
30 |
|
شمارهٔ ۲۰ : تا کی ز شبِ دراز گریان گردم |
18 |
|
شمارهٔ ۲۱ : ای صبح! مدم، مخند و مپسند آخر |
16 |
|
شمارهٔ ۲۲ : ای صبح! چو دیدی بر من سیم تنی |
17 |
|
شمارهٔ ۲۳ : امشب ز دمیدن تو ترسم ای صبح |
38 |
|
شمارهٔ ۲۴ : امشب که دمی هم نفس جانانم |
19 |
|
شمارهٔ ۲۵ : امشب اگر از تو بی قراری نرود |
17 |
|
شمارهٔ ۲۶ : امشب چه شود که لب ببندی ای صبح |
19 |
|
شمارهٔ ۲۷ : ای چرخ ز دریوزهٔ تو میگریم |
17 |
|
شمارهٔ ۲۸ : صبحا! ندمی تو تا که بندی نکنی |
16 |
|
شمارهٔ ۲۹ : امشب بر ماست آن صنمِ جان افروز |
32 |
|
شمارهٔ ۳۰ : ای صبح!اگر تو یاریی خواهی کرد |
21 |
|
شمارهٔ ۳۱ : ای صبح! امشب علاج دیگر نبرم |
15 |
|
شمارهٔ ۳۳ : ای صبح! اگر بلندیت هست امشب |
19 |
|
شمارهٔ ۳۴ : ای صبح! اگر طلوع خواهی کردن |
26 |
|
شمارهٔ ۳۲ : ای صبح! هزار پرده در پیش انداز |
16 |
|
شمارهٔ ۳۵ : ای صبح! مخند امشب و لب بر لب باش |
18 |
|
شمارهٔ ۳۶ : امشب که مرا نه تاب و نه تب بودست |
15 |
|
شمارهٔ ۳۷ : ای صبح! جهان فروز عالم تو نیی |
41 |
|
شمارهٔ ۳۸ : جانم به مرادِ دل رسیدست امشب |
22 |
|
شمارهٔ ۳۹ : گر صبح شبی واقعهٔ من دیدی |
17 |
|
شمارهٔ ۴۰ : آن شب که بود وصال جان افروزم |
17 |
|
شمارهٔ ۴۲ : دوش آمد و گفت: چند جانت سوزم |
21 |
|
شمارهٔ ۴۱ : دوش آن بت مستم به طلب آمده بود |
32 |
|
شمارهٔ ۴۳ : چندان که به ناله میگشایم لب را |
27 |
|
شمارهٔ ۴۴ : گر زلفِ بتم نیی تو ای شب بسر آی |
28 |
|
شمارهٔ ۱ : بس آب که بگذشته ز سر از تو مراست |
20 |
|
شمارهٔ ۲ : با عشق تو جان خویش در خواهم باخت |
21 |
|
شمارهٔ ۳ : ای در سر ذرّه ذرّه سودا از تو |
20 |
|
شمارهٔ ۴ : تا چند ز سودای تو در سوز و گداز |
20 |
|
شمارهٔ ۵ : خونی که ز تو درجگرم میگردد |
28 |
|
شمارهٔ ۶ : جان پیش رخت نثار خواهم آورد |
20 |
|
شمارهٔ ۸ : در عشق تو از نفع و ضرر نندیشم |
34 |
|
شمارهٔ ۷ : گه عشق توام چو شمع گرینده کند |
18 |
|
شمارهٔ ۹ : جان روی دل افروزِ تُرا باید داشت |
18 |
|
شمارهٔ ۱۰ : دل شمع تو شد به یک نفس مرده شود |
16 |
|
شمارهٔ ۱۱ : تن جز به هوای تو قدم مینزند |
17 |
|
شمارهٔ ۱۲ : ای جان و دلم به جان و دل مولایت |
16 |
|
شمارهٔ ۱۳ : بر خویش بسی چو شمع بگریستهام |
17 |
|
شمارهٔ ۱۴ : کارم که چو زلف تو مشوش دارم |
25 |
|
شمارهٔ ۱۵ : ای رفته به آسمان نفیرم بی تو |
52 |
|
شمارهٔ ۱۶ : هر لحظه در آتشِ غمم اندازی |
23 |
|
شمارهٔ ۱۷ : از آتشِ عشق چون تو جان افروزی |
16 |
|
شمارهٔ ۱۸ : ای کاش هزار موی بشکافتمی |
17 |
|
شمارهٔ ۱۹ : آن دل که چو موم نرمم آمدبی تو |
38 |
|
شمارهٔ ۲۰ : در راه غمِ تو جسم و جوهر بنماند |
23 |
|
شمارهٔ ۲۱ : جان بر گرهِ زلفِ تو آموخته گیر |
18 |
|
شمارهٔ ۲۲ : از بس که ز غم سوختم ای شمع طراز |
28 |
|
شمارهٔ ۲۳ : تادور فتادهام از آن نادره کار |
17 |
|
شمارهٔ ۲۸ : هر دل که ره چنان جمالی یابد |
18 |
|
شمارهٔ ۲۹ : با دل گفتم که راه دلبر گیرم |
14 |
|
شمارهٔ ۳۰ : امشب به صفت شمع دلفروزم من |
38 |
|
شمارهٔ ۲۴ : دل در غم عشقِ دلفروزم همه شب |
36 |
|
شمارهٔ ۲۵ : تا آتشِ عشقِ او برافروخت مرا |
41 |
|
شمارهٔ ۲۶ : در عشق چو شمع من به سوزم زنده |
20 |
|
شمارهٔ ۲۷ : تا روی به روی دلفروز آوردیم |
30 |
|
شمارهٔ ۳۱ : خورشید ز سوزِ من سراسیمه بسوخت |
34 |
|
شمارهٔ ۳۴ : چون عین بریدگی بود دوختنم |
29 |
|
شمارهٔ ۳۲ : تا چند قفا ز نیک و بد خواهم خورد |
21 |
|
شمارهٔ ۳۳ : زین کار که در گردنِ من خواهد بود |
19 |
|
شمارهٔ ۳۵ : شمعم که خوشی میان سوزم بکُشند |
18 |
|
شمارهٔ ۳۶ : شمعم که غذای من ز من خواهد بود |
31 |
|
شمارهٔ ۳۷ : شمعم که چنین زار و نزار آمدهام |
17 |
|
شمارهٔ ۳۸ : گر میسوزم مرا مکن چندین عیب |
19 |
|
شمارهٔ ۴۲ : امروز منم عهد مصیبت بسته |
20 |
|
شمارهٔ ۴۴ : در خفیه بسوختم بسی بی آتش |
36 |
|
شمارهٔ ۳۹ : گفتی چه کنم تا شب من گردد روز |
16 |
|
شمارهٔ ۴۰ : دانی تو که شمع را چرا افروزند |
18 |
|
شمارهٔ ۴۱ : ای دل دیدی که هر که شد زنده بمُرد |
26 |
|
شمارهٔ ۴۳ : مائیم ز غم سوخته خوش خوش چون شمع |
15 |
|
شمارهٔ ۴۵ : چون نیست نصیبِ من بجز غمخواری |
17 |
|
شمارهٔ ۴۶ : تا چند روم که این ره کوته نیست |
21 |
|
شمارهٔ ۴۷ : پیوسته ز عشق جان و تن میسوزم |
31 |
|
شمارهٔ ۵۲ : شمعم که حریف آتشم میآید |
20 |
|
شمارهٔ ۴۸ : سر رفت به باد و من کله میدارم |
20 |
|
شمارهٔ ۴۹ : چون صبح به خنده یک نفس خرسندم |
31 |
|
شمارهٔ ۵۰ : شمعم که ز خود نهان فرو میگریم |
18 |
|
شمارهٔ ۵۱ : ما بحرِ بلا پیش گرفتیم و شدیم |
55 |
|
شمارهٔ ۵۳ : هر لحظه مرا چو شمع سوز افزون شد |
18 |
|
شمارهٔ ۵۴ : داری سرِ عشق کار از سردرگیر |
28 |
|
شمارهٔ ۵۷ : تا تو به بلای عشق تن در ندهی |
19 |
|
شمارهٔ ۵۸ : گر هست دلت سوختهٔ جان افروز |
27 |
|
شمارهٔ ۵۵ : تا هیچ چو شمعت سر و کار خویش است |
32 |
|
شمارهٔ ۵۶ : گر عیاری خشک و ترت سوختنی است |
16 |
|
شمارهٔ ۵۹ : ای آن که دل زندهٔ تو مُرد از تو |
21 |
|
شمارهٔ ۶۰ : چون شمع به یک نفس فرو مرده مباش |
22 |
|
شمارهٔ ۶۱ : آن را که درین حبسِ فنا باید مُرد |
16 |
|
شمارهٔ ۶۲ : در عشق چو شمع با خطر نتوان زیست |
15 |
|
شمارهٔ ۶۴ : در عشق چو شمع سوز باید آورد |
47 |
|
شمارهٔ ۶۸ : از دل غم دلفروز میباید دید |
17 |
|
شمارهٔ ۶۳ : چون گل به دل افروخته میباید بود |
19 |
|
شمارهٔ ۶۵ : چون تن زده سر به راه میباید داشت |
20 |
|
شمارهٔ ۶۶ : در شمع نگر فتاده در سوز و گداز |
16 |
|
شمارهٔ ۶۷ : شمعی که ز درد او کسی باز نگفت |
28 |
|
شمارهٔ ۷۱ : گفتم: شمعا! چند گدازی مگداز |
16 |
|
شمارهٔ ۷۴ : ای شمع! فروختی و لاف آوردی |
29 |
|
شمارهٔ ۷۶ : میپرسیدم دوش ز شمع آهسته |
31 |
|
شمارهٔ ۶۹ : بس شب که چو شمع با سحر باید بُرد |
17 |
|
شمارهٔ ۷۰ : شمعی که ز سوز خویش بر خود بگریست |
16 |
|
شمارهٔ ۷۲ : گفتم:شمعا! چون همه شب در کاری |
23 |
|
شمارهٔ ۷۳ : ای شمع سرافراز چه پنداشتهای |
17 |
|
شمارهٔ ۷۵ : چون شمع دمی نبود خشنود از خویش |
27 |
|
شمارهٔ ۷۷ : شمع از در جمع چون درآمد حالی |
22 |
|
شمارهٔ ۷۸ : آتش همه با شمع جفا خواهد کرد |
13 |
|
شمارهٔ ۷۹ : از روغنِ شمع بوی خون میآید |
22 |
|
شمارهٔ ۸۰ : ای شمع! تُرا نیست ز سوز آگاهی |
17 |
|
شمارهٔ ۸۴ : ای شمع! چو از آتش افسر کردی |
16 |
|
شمارهٔ ۸۱ : ای شمع! برو که سوختن حدّ من است |
16 |
|
شمارهٔ ۸۲ : ای شمع! تُرا ز سوز محروم کنند |
15 |
|
شمارهٔ ۸۳ : ای شمع! تویی علی الیقین دشمنِ تو |
15 |
|
شمارهٔ ۸۸ : از آه دلم کام و زبان میسوزد |
22 |
|
شمارهٔ ۸۵ : ای شمع! اگرچه مجلس افروختهای |
20 |
|
شمارهٔ ۸۶ : ای شمع! چو تو هیچ کس آشفته ندید |
14 |
|
شمارهٔ ۸۷ : ای شمع! مگر چنان گمانْت افتادست |
22 |
|
شمارهٔ ۸۹ : ای شمع! بلا در تو اثر خواهد کرد |
28 |
|
شمارهٔ ۹۰ : در شمع نگاه کن که جان میسوزد |
22 |
|
شمارهٔ ۹۱ : شمع است که همچو سرکشی میخندد |
28 |
|
شمارهٔ ۹۳ : ای آتش شمع سوز ناساز مشو |
17 |
|
شمارهٔ ۹۴ : ای شمع! دمی از دل مضطر میزن |
43 |
|
شمارهٔ ۹۷ : روی تو که عقل ازو خجل میآید |
23 |
|
شمارهٔ ۹۸ : چون شمع ز سوختن دمی دم نزنم |
21 |
|
شمارهٔ ۹۲ : شمعی که به یک دو شب فرو میگذرد |
39 |
|
شمارهٔ ۹۵ : در عشقِ تو عقل و سمع میباید باخت |
14 |
|
شمارهٔ ۹۶ : ماتم زدهٔ تو جانِ سرگشتهٔ ماست |
18 |
|
شمارهٔ ۹۹ : تا از سر زلفت خبرم میماند |
33 |
|
شمارهٔ ۱۰۵ : دل بی غم دلفروز نتوان آورد |
17 |
|
شمارهٔ ۱۰۰ : من شمع توام که گر بسوزم صد بار |
19 |
|
شمارهٔ ۱۰۱ : بر بوی وصال میدویدم همه سال |
39 |
|
شمارهٔ ۱۰۲ : پیوسته کتاب هجر میخواهم خواند |
17 |
|
شمارهٔ ۱۰۳ : در اشک خود از فرقت آن یار که بود |
28 |
|
شمارهٔ ۱۰۴ : گفتم:جانا! عهد و قرارت این است |
46 |
|
شمارهٔ ۱۰۳ : در اشک خود از فرقت آن یار که بود |
25 |
|
شمارهٔ ۱۱۱ : ای آتشِ شمع بر تنِ لاغرِ او |
15 |
|
شمارهٔ ۱۰۶ : دی میگفتم دستِ من و دامنِ او |
33 |
|
شمارهٔ ۱۰۷ : امروز منم فتاده زان دلکش باز |
16 |
|
شمارهٔ ۱۰۸ : چون نیست امید غمگسارم نفسی |
24 |
|
شمارهٔ ۱۰۹ : ای شمع! کسی که چون تو آغشته بود |
21 |
|
شمارهٔ ۱۱۰ : ای شمعِ جهان فروز! در هر نفسی |
36 |
|
شمارهٔ ۱۱۲ : چون شمع یک آغشتهٔ تنها بنمای |
16 |
|
شمارهٔ ۱ : شمع آمد و گفت: هر دم آتش بیش است |
20 |
|
شمارهٔ ۲ : شمع آمد و گفت: موسی جمع منم |
34 |
|
شمارهٔ ۴ : شمع آمد و گفت: جانِ من میسوزد |
14 |
|
شمارهٔ ۶ : شمع آمد و گفت: تا تنم زنده بود |
17 |
|
شمارهٔ ۳ : شمع آمد و گفت: جان فشان آمدهام |
40 |
|
شمارهٔ ۵ : شمع آمد و گفت: این چه عذاب است مرا |
20 |
|
شمارهٔ ۷ : شمع آمد و گفت: آمده جانم به لب است |
23 |
|
شمارهٔ ۸ : شمع آمد و گفت: از تنِ سرکشِ خویش |
16 |
|
شمارهٔ ۹ : شمع آمد و گفت: من به صد جان نرهم |
18 |
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شمارهٔ ۱۲ : شمع آمد و گفت: عزّت من بنگر: |
19 |
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شمارهٔ ۱۰ : شمع آمد و گفت: شخصم آغشته که بود |
29 |
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شمارهٔ ۱۱ : شمع آمد وگفت: در دلم خون افتاد |
17 |
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شمارهٔ ۱۳ : شمع آمد و گفت: در دلم خونم سوخت |
36 |
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شمارهٔ ۱۴ : شمع آمد و گفت: هر زمان چون قلمم |
33 |
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شمارهٔ ۱۵ : شمع آمد و گفت:چند سرگشته شوم |
22 |
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شمارهٔ ۱۹ : شمع آمد و گفت: چند باشم سرکش |
17 |
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شمارهٔ ۲۴ : شمع آمد و گفت: بر تن خویشتنم |
28 |
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شمارهٔ ۱۶ : شمع آمد و گفت: با چنین کار درشت |
26 |
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شمارهٔ ۱۷ : شمع آمد و گفت: چون منم دشمنِ من |
16 |
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شمارهٔ ۱۸ : شمع آمد و گفتا: منِ مجنون باری |
15 |
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شمارهٔ ۲۰ : شمع آتش را گفت که طبعی که تر است |
20 |
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شمارهٔ ۲۱ : شمع آمد و گفت: نیست اینجا جایم |
19 |
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شمارهٔ ۲۲ : شمع آمد و گفت: من نیم قلب مجاز |
37 |
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شمارهٔ ۲۳ : شمع آمد وگفت: جاودان افتادن |
16 |
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شمارهٔ ۲۵ : شمع آمد و گفت: من نیم عهد شکن |
36 |
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شمارهٔ ۲۷ : شمع آمد و گفت: نی غمم میبرسد |
20 |
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شمارهٔ ۳۰ : شمع آمد و گفت: می بر افروزندم |
15 |
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شمارهٔ ۲۶ : شمع آمد و گفت: هر دمم میسوزند |
17 |
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شمارهٔ ۲۸ : شمع آمد و گفت: جانم آتشخانه است |
18 |
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شمارهٔ ۲۹ : شمع آمد و گفت: جان نگر بر لبِ من |
18 |
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شمارهٔ ۳۱ : شمع آمد و گفت:چون مرا نیست قرار |
29 |
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شمارهٔ ۳۲ : شمع آمد و گفت: چند از افروختنم |
18 |
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شمارهٔ ۳۴ : شمع آمد و در آتش سرکش پیوست |
45 |
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شمارهٔ ۳۳ : شمع آمد و گفت: از چه دل خوش دارم |
15 |
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شمارهٔ ۳۵ : شمع آمد و گفت: ماندهام بی سر و پای |
28 |
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شمارهٔ ۳۶ : شمع آمد زار زار و میگفت به راز |
19 |
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شمارهٔ ۳۷ : شمع آمد و گفت: کیست گمراه چو من |
34 |
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شمارهٔ ۳۸ : شمع آمد و گفت: آتش و گازست عظیم |
20 |
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شمارهٔ ۴۲ : شمع آمد و گفت: این کرا تاب بود |
17 |
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شمارهٔ ۴۵ : شمع آمد و گفت: اگر میسر گردد |
21 |
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شمارهٔ ۳۹ : شمع آمد و گفت: مانده در سوز و گداز |
24 |
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شمارهٔ ۴۰ : شمع آمد و گفت: ماندهام بی سر و پا |
17 |
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شمارهٔ ۴۱ : شمع آمد و گفت: کشتهام هر سحری |
20 |
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شمارهٔ ۴۳ : شمع آمد و گفت: اگر لبم پُرخنده است |
22 |
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شمارهٔ ۴۴ : شمع آمد و گفت: بیسرم باید مُرد |
15 |
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شمارهٔ ۴۷ : شمع آمد و گفت: جان غم کش دارم |
34 |
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شمارهٔ ۴۶ : شمع آمد و گفت: زود بیرون رفتم |
29 |
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شمارهٔ ۴۸ : شمع آمد و گفت: اینهمه بیچارگیم |
38 |
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شمارهٔ ۴۹ : شمع آمد و گفت: رختِ رفتن بستم |
22 |
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شمارهٔ ۵۰ : شمع آمد و گفت: دل گرفت از خلقم |
40 |
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شمارهٔ ۵۱ : شمع آمد و گفت: این سفر افتاد مرا |
17 |
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شمارهٔ ۵۲ : شمع آمد و گفت: شهر پر خندهٔ ماست |
26 |
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شمارهٔ ۵۱ : شمع آمد و گفت: این سفر افتاد مرا |
33 |
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شمارهٔ ۵۳ : شمع آمد و گفت: دادِ من باید خواست |
17 |
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شمارهٔ ۵۴ : شمع آمد وگفت: آمدهام شب پیمای |
22 |
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شمارهٔ ۵۵ : شمع آمد و گفت: سوزِ من گر دانی |
17 |
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شمارهٔ ۵۶ : شمع آمد و گفت: یارِ من خواهد بود |
20 |
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شمارهٔ ۵۷ : شمع آمد و گفت: میفروزم همه شب |
30 |
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شمارهٔ ۵۸ : شمع آمد و گفت: میروم حیران من |
17 |
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شمارهٔ ۵۹ : شمع آمد و گفت: حالتی خوش دیدم |
33 |
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شمارهٔ ۶۰ : شمع آمد و گفت: اگر تنم غم کش خاست |
22 |
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شمارهٔ ۶۱ : شمع آمد و گفت: این تن لاغر همه سوخت |
19 |
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شمارهٔ ۶۲ : شمع آمد و گفت: جان من پُردرد است |
19 |
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شمارهٔ ۶۳ : شمع آمد و گفت: آنِ عشقم همه شب |
45 |
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شمارهٔ ۶۴ : شمع آمد و گفت: بر تنِ لاغر خویش |
37 |
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شمارهٔ ۶۵ : شمع آمد و گفت: هر که مردی بودست |
27 |
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شمارهٔ ۶۶ : شمع آمد و گفت: دامنی تر داری |
41 |
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شمارهٔ ۶۷ : شمع آمد و گفت: آمدهام رنگ آمیز |
15 |
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شمارهٔ ۶۸ : شمع آمد و گفت: زاتش افسر دارم |
18 |
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شمارهٔ ۶۹ : شمع آمد و گفت: انجمنم باید ساخت |
17 |
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شمارهٔ ۷۰ : شمع آمد و گفت: پا و سر باید سوخت |
18 |
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شمارهٔ ۷۱ : شمع آمد و گفت: خویشتن میتابم |
17 |
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شمارهٔ ۷۲ : شمع آمد و گفت: بنده میباید بود |
29 |
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شمارهٔ ۷۳ : شمع آمد و گفت: کار باید کرد |
18 |
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شمارهٔ ۷۵ : شمع آمد و گفت: اگر خطا سوختمی |
25 |
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شمارهٔ ۷۴ : شمع آمد و گفت: تا مرا یافتهاند |
16 |
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شمارهٔ ۷۶ : شمع آمد و گفت: بر نمیباید خاست |
22 |
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شمارهٔ ۷۷ : شمع آمد و گفت: گر بما زد پر باز |
16 |
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شمارهٔ ۷۸ : شمع آمد و گفت: در بلا باید سوخت |
16 |
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شمارهٔ ۷۹ : شمع آمد و گفت: سوز پروانه جداست |
16 |
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شمارهٔ ۸۰ : شمع آمد و گفت: کشته بنشینم نیز |
24 |
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شمارهٔ ۸۲ : شمع آمد و گفت: کشتهٔ هر روزم |
20 |
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شمارهٔ ۸۱ : شمع آمد و گفت: زخم خوردم بر سر |
35 |
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شمارهٔ ۸۳ : شمع آمد و گفت: دولتم دوری بود |
25 |
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شمارهٔ ۸۴ : شمع آمد و گفت: چون گرفتم کم خویش |
17 |
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شمارهٔ ۸۵ : شمع آمد و گفت: دوربین باید بود |
23 |
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شمارهٔ ۸۶ : شمع آمد و گفت: دائماً در سفرم |
17 |
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شمارهٔ ۸۷ : شمع آمد و گفت: اگر شماری دارم |
30 |
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شمارهٔ ۸۸ : شمع آمد و گفت: اگر بمی باید رفت |
28 |
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شمارهٔ ۸۹ : شمع آمد و گفت: کار در کار افتاد |
34 |
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شمارهٔ ۹۲ : شمع آمد وگفت: چون درآمد آتش |
25 |
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شمارهٔ ۹۴ : شمع آمد و گفت: کشتهٔ ایامم |
21 |
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شمارهٔ ۹۰ : شمع آمد و گفت: عمر خوش خوش بگذشت |
19 |
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شمارهٔ ۹۱ : شمع آمد و گفت: جمع اگر بنشینند |
17 |
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شمارهٔ ۹۳ : شمع آمد و گفت: خیز و جانبازی بین |
31 |
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شمارهٔ ۹۵ : شمع آمد وگفت: سوز جان خواهم داشت |
17 |
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شمارهٔ ۹۶ : شمع آمد و گفت: گه دلم مُرده شود |
35 |
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شمارهٔ ۹۷ : شمع آمد و گفت: جور عالم برسد |
16 |
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شمارهٔ ۱۰۰ : شمع آمد و گفت: سخت کوشم امشب |
20 |
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شمارهٔ ۹۸ : شمع آمد و گفت: از سر دردی که مراست |
18 |
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شمارهٔ ۹۹ : شمع آمد و گفت: ماندهام بیخور و خَفْت |
25 |
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شمارهٔ ۱۰۱ : شمع آمد وگفت: جان من میببرند |
20 |
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شمارهٔ ۱ : پروانه به شمع گفت: ای در سر سوز |
40 |
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شمارهٔ ۲ : پروانه به شمع گفت: چند افروزی |
26 |
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شمارهٔ ۵ : پروانه به شمع گفت: یارم باشی |
28 |
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شمارهٔ ۳ : پروانه به شمع گفت: «از روزِ نخست |
36 |
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شمارهٔ ۴ : پروانه به شمع گفت: عیدِ تو خوش است |
17 |
|
شمارهٔ ۶ : پروانه به شمع گفت: من بیش از تو |
15 |
|
شمارهٔ ۷ : پروانه به شمع گفت: چون خوش افتاد |
16 |
|
شمارهٔ ۸ : پروانه به شمع گفت: کیفر بردیم |
25 |
|
شمارهٔ ۱۲ : پروانه به شمع گفت: چندی سوزم |
17 |
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شمارهٔ ۱۳ : پروانه به شمع گفت: آخر نظری |
19 |
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شمارهٔ ۱۴ : پروانه به شمع گفت: کم سوز مرا |
54 |
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شمارهٔ ۹ : پروانه به شمع گفت: گرینده مباش |
28 |
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شمارهٔ ۱۰ : پروانه به شمع گفت: میسوزم خویش |
16 |
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شمارهٔ ۱۱ : پروانه به شمع گفت: میسوزم زار |
17 |
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شمارهٔ ۱۵ : پروانه به شمع گفت: دمسازی من |
37 |
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شمارهٔ ۱۶ : پروانه به شمع گفت: غم بیشستی |
31 |
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شمارهٔ ۱ : ای دوست بدان کاین فلک پیروزه |
17 |
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شمارهٔ ۳ : بحر کرم و گنج وفا در دل ماست |
20 |
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شمارهٔ ۴ : بگذشت ز فرق دو جهان گوهر ما |
58 |
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شمارهٔ ۱۷ : پروانه که شمع دلگشایش افتاد |
18 |
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شمارهٔ ۱۸ : چون شمعِ جمال خود به پروانه نمود |
43 |
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شمارهٔ ۲ : جبریل به پرِّ جان ما پرّیدست |
19 |
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شمارهٔ ۶ : یک قطره ز فقرِ دل سوی صحرا شد |
35 |
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شمارهٔ ۱۱ : گلهای حقیقت بنرُفتیم یکی |
17 |
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شمارهٔ ۵ : شد در همه آفاق عَلَم شیوهٔ ما |
21 |
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شمارهٔ ۷ : رفتیم و ز ما زمانه آشفته بماند |
49 |
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شمارهٔ ۸ : ای بس که به خار مژه خارا سفتیم |
15 |
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شمارهٔ ۹ : اینک جانم به پیشِ جانان شدهام |
18 |
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شمارهٔ ۱۰ : صد دُر به اشارتی بسفتیم و شدیم |
15 |
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شمارهٔ ۱۲ : چون چنگ، همه خروش میباید بود |
17 |
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شمارهٔ ۱۴ : در فقر دلم عزم سیاهی دارد |
16 |
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شمارهٔ ۱۶ : که کرد چو بازی مگسی را هرگز |
16 |
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شمارهٔ ۱۸ : گه یک نفسم هر دوجهان میگیرد |
29 |
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شمارهٔ ۱۹ : از دفترِ عشقم ورقی بنهادم |
16 |
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شمارهٔ ۱۳ : از نادره، نادر جهانیم امروز |
17 |
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شمارهٔ ۱۵ : درویشی را به هر چه خواهی ندهم |
44 |
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شمارهٔ ۱۷ : عیسی چو شرابِ لطف در کامم ریخت |
17 |
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شمارهٔ ۲۰ : آمد دلم و کام روا کرد و برفت |
16 |
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شمارهٔ ۲۵ : موج سخنم ز اوج پروین بگذشت |
18 |
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شمارهٔ ۲۱ : جمشید یقین شدم ز پیدایی خویش |
23 |
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شمارهٔ ۲۲ : رفتم که زبان را سر انشا بنماند |
23 |
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شمارهٔ ۲۳ : دل نیست که نور حق بر او تافته نیست |
28 |
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شمارهٔ ۲۴ : ای دل به سخن مثل محال است تُرا |
17 |
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شمارهٔ ۲۶ : اینها که زنظم و نثرِ خود میلافند |
20 |
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شمارهٔ ۲۷ : خورشید چو رخ نمود انجم برخاست |
21 |
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شمارهٔ ۲۹ : تا کی سخن لطیف نیکو گویم |
43 |
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شمارهٔ ۳۰ : تا روی چو آفتاب دلدار بتافت |
18 |
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شمارهٔ ۳۱ : دل میبینم عاشق وآشفته ازو |
32 |
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شمارهٔ ۳۴ : در هر سخنی که سر بدان آوردم |
23 |
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شمارهٔ ۲۸ : در وقت بیان،عقل سخن سنج مراست |
18 |
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شمارهٔ ۳۲ : یا رب ز خور و خفت چه میباید دید |
40 |
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شمارهٔ ۳۳ : تا بود مجال گفت، جان، دُرها سفت |
18 |
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شمارهٔ ۳۵ : بر دل ز هوا اگر چه بند است تُرا |
31 |
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شمارهٔ ۳۹ : ای خلق فرو مانده کجایید همه |
56 |
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شمارهٔ ۴۱ : هان ای دل بیدار بخفتی آخر |
20 |
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شمارهٔ ۴۲ : مرغی دیدم نشسته بر ویرانی |
57 |
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شمارهٔ ۳۶ : بس دُرِّ یقین که میبسفتم با تو |
95 |
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شمارهٔ ۳۷ : جانم دُرِ این قلزم بیپایان سفت |
178 |
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شمارهٔ ۳۸ : آن را که ز سلطان یقین تمکین نیست |
49 |
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شمارهٔ ۴۰ : دیدی که چِهها با منِ شیدا کردی |
41 |
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شمارهٔ ۴۳ : عالم که امان نداد کس را نفسی |
41 |
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شمارهٔ ۴۴ : زین کژ که به راستی نکو میگردد |
41 |
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شمارهٔ ۴۵ : ماییم به صد هزار غم رفته به خاک |
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شمارهٔ ۴۶ : با زهر اجل چو نیست تریاکم روی |
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شمارهٔ ۴۷ : عطار به درد از جهان بیرون شد |
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شمارهٔ ۴۸ : گاهی سخنم به صد جنون بنویسند |
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مقدمه : بسم اللّه الرّحمن الرّحیم |
53 |
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